Last Updated: 01-11-10 12:13 AM
कहते हैं भगवान की आराधना में संगीत का उद्गम मंदिरों के परिसर में हुआ। इस समय संगीत की प्राचीन सनातन परंपरा को जीवंत करने में कई धार्मिक संस्थान और मठ सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। उनमें वाराणसी के श्रीमठ के रामनरेशाचार्य हैं।
उन्होंने स्पीकमैके के सहयोग से भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य का भव्य श्रीमठ संगीत महोत्सव बनारस के पंचगंगा घाट पर शरदपूर्णिमा की रात को आयोजित करते रहे है। चंदा की चांदनी के मुक्ताकाश में गंगा के किनारे संगीत के स्वरों और जलधारा की लहरों का जो तारतम्य जुड़ रहा था, उसके रसपान की अभिव्यक्ति शब्दों से नहीं, बल्कि वहां उपस्थित रह कर ही की जा सकती है।
मंगलाचरण के रूप शंखनाद और श्लोक उच्चारण से श्रीमठ संगीत महोत्सव का आरंभ हुआ। समारोह में संगीत की शुरुआत मशहूर संतूर वादक पंडित भजन सोपोरी ने राग मारवा से की। कश्मीर घाटी में सोपोरी परिवार का संतूर से गहरा रिश्ता है। भजन जी ने इस वादन में अपनी एक अलग शैली इजाद की है। उन्होंने इस सपाट तारों के वाद्य में ध्रुपद अंग को जोड़ने में एक उल्लेखनीय काम किया है।
राग मारवा ध्रुपद का बहुत प्रभावी राग है, उसी ध्रुपद अंग के चलन में इस राग को रंजकता से भजन सोपोरी ने प्रस्तुत किया। तीनताल में निबद्ध राग पूरिया कल्याण की दो बंदिशों को पेश करने में उनका अंदाज बड़ा सरस था। उनके साथ तबले पर अकरम ने भी अपनी थिरकती उंगलियों का जादू दिखाया।
ध्रुपद में डागरवाणी के वरिष्ठ उस्ताद रहीम फहीमउद्दीन डागर ने राग चंद्रकौंस को आलाप में विस्तार से पेश करते राग की परत-दर-परत को बड़ी संजीदगी से खोला। इसके रागात्मक रूप में तांडव और लास्य दोनों का मर्मस्पर्शी भाव उनके गायन में प्रगट हुआ। प्रवीण आर्य की पखावज संगत पर सुर और ताल का बेजोड़ मेल इस प्रस्तुति में था। राग धमार और तोड़ी की प्रस्तुति में ध्रुपद का दुर्लभ चलन उनके गायन में दिखा।
भरतनाट्यम की सुपरिचित नृत्यांगना गीता चंद्रन का वर्चस्व नृत्य के हर पक्ष में नज़र आया। इस महोत्सव में उन्होंने अपनी शिष्याओं के साथ परंपरागत भरतनाट्यम को सरसता से प्रस्तुत किया। राग हंसध्वनि में निबद्ध मल्लारी में शिव और कृष्ण के लालित्य रूपों को नृत-नृत्य अभिनय से दर्शाने में एक सुंदर संकल्पना गीता की थी।
गीता चंद्रन द्वारा भक्तिभाव में पंचाक्षर स्त्रोत की प्रस्तुति के बाद शरद ऋतु में कृष्ण और गोपियों के महारास को इस नृत्य शैली में जिस जीवंतता और मोहकता से गीता और उनकी शिष्याओं ने प्रस्तुत किया, वह वाकई में रोमांचित करने वाला था। बनारस की गिरजा देवी ने ठेठ बनारसी रंग में ठुमरी और दादरा अपनी शिष्या मालिनी अवस्थी और शुचिता के साथ प्रस्तुत किया।
गंगा, श्रीगणेश, पार्वती की स्तुति और राग यमन कल्याण की शुद्ध रागदारी में विलंबित और छोटा खयाल गाने के बाद मिश्र खमाज में ठुमरी शुरू करते ही उन्होंने समां बांध दिया। बंदिश सांवरिया को देखे बिना नाही चैन’ गायन में नायिका के मनोभावों की अभिव्यक्ति में बनारसी बोली की चाशनी उनके स्वरों में चढ़कर बह रही थी। ताल दादरा की लहकती लय में उन्होंने दो रचनाओं को हमेशा की तरह अपने अनूठे अंदाज में प्रस्तुत किया।
रुद्रवीणा वादक उस्ताद असद अली खां ने अपने बेटे अली जकी हैदर के साथ बीनकारी अंग में राग दरबारी कन्हरा को अपने अनूठे अंदाज में गहराई से प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का समापन 102 साल के बुजुर्ग और प्राचीन गायकी के गवाह उस्ताद अब्दुल रशीद खां ने अपने रचित राग नर पंचम, सावनी विहाग तराना, ठुमरी, भजन आदि की प्रस्तुति से किया। गायन में उनकी एक अलग ही शैली नजर आ रही थी
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