पटना में चल रहे चातुर्मास महायज्ञ के दौरान लाला लाजपत राय भवन में संध्याकालिन सत्संग के दौरान जगदगुरु रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज ने कहा कि लौकिक कर्मोंके समान कल्याणमार्गमें भी अधिकारीकी व्यवस्था है। सबलोग सभी कर्मोंको नहीं करवा सकते। अतएव कर्मसाधकोंको आमन्त्रित करनेवाला यह विज्ञापित करता है कि हमारे संस्थान (उद्योग)को कैसा साधक चाहिये। यदि वैसी योग्यतासे युक्त साधक नहीं हो तो उसे, अपने लिये उपयुक्त नहीं मानकर, लौटा देता है। उसे पूर्ण विश्वास होता है कि यह हमारे संस्थानकी फलदायकताको समृद्ध नहीं कर सकता।
इसी प्रकारसे वैदिकशास्त्रोंने भी तत्-तत् फलदायक कर्मोंके सम्पादनके लिये अधिकारीका निर्धारण किया है। मोक्षदायक ज्ञानकी प्राप्तिके लिये वे ही अधिकारी हैं जो साधन-चतुष्टय सम्पन्न हैं; अर्थात् जिनके पास नित्य तथा अनित्यका विवेक हो, इस लोक एवं परलोकके समस्त भोगसाधनोंसे पूर्णतः विरक्ति हो, शम-दमादि छः सम्पत्तियाँ हों तथा दृढ़मुमुक्षुत्व (प्रबलतम मोक्षप्राप्तिकी इच्छा) हो। इतना ही नहीं, उपर्युक्त विशिष्ट साधनोंसे सम्पन्न साधकको ब्राह्मण होना आवश्यक है, वह भी पुरुष जाति का। क्योंकि ब्रह्मविद्याके अनुष्ठानमें उपनयन-संस्कारसे मण्डित वेदाध्ययनके लिये अधिकृत मात्र ब्राह्मण ही है। वही संन्यासी बनकर ज्ञान-साधनाके अनुसार ज्ञानको प्राप्तकर मोक्षको प्राप्तकर सकता है। इस साधनामें क्षत्रियादि तथा स्त्रियोंकी अधिकारिता सर्वथा अवरुद्ध है।
उन्होंने जोर देकर कहा कि कुछ आचार्योंने भक्तिको भी ब्रह्म-विद्या स्वरूप स्वीकारकर उसके प्रवेश-द्वारको क्षत्रियादि एवं स्त्रियोंके लिये बन्ध कर दिया है। केवल ब्राह्मण ही भक्ति-साधनाका अधिकारी है। इस सम्बन्धमें अन्यान्य महामनीषि आचार्य सहमत नहीं हैं। उनकी परमोदार घोषणा है कि भक्ति- साधनाके सभी अधिकारी हैं। उसका सम्पादन कर सभी मानव जीवनको परम धन्यतासे मण्डित कर सकते हैं।
परन्तु शरणागतिकी उदारता तो आकाशके समान है। धन्य है वैदिक सनातन धर्म, धन्य हैं राम-कृष्णादि भगवदवतार तथा धन्य हैं वे आचार्य व सन्तगण जिन्होंने शरणागतिको प्रचारित एवं प्रसारितकर असंख्य जीवोंको परमफलसे विभूषित किया।
इन विचारोंको जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराजने अभिव्यक्त किया कल्याणकामियोंके लिये; जो अपने पटना-प्रवास के क्रममें लगातार लाला लाजपत राय सभागारमें विचारामृतकी वर्षा कर रहे हैं।
इसी प्रकारसे वैदिकशास्त्रोंने भी तत्-तत् फलदायक कर्मोंके सम्पादनके लिये अधिकारीका निर्धारण किया है। मोक्षदायक ज्ञानकी प्राप्तिके लिये वे ही अधिकारी हैं जो साधन-चतुष्टय सम्पन्न हैं; अर्थात् जिनके पास नित्य तथा अनित्यका विवेक हो, इस लोक एवं परलोकके समस्त भोगसाधनोंसे पूर्णतः विरक्ति हो, शम-दमादि छः सम्पत्तियाँ हों तथा दृढ़मुमुक्षुत्व (प्रबलतम मोक्षप्राप्तिकी इच्छा) हो। इतना ही नहीं, उपर्युक्त विशिष्ट साधनोंसे सम्पन्न साधकको ब्राह्मण होना आवश्यक है, वह भी पुरुष जाति का। क्योंकि ब्रह्मविद्याके अनुष्ठानमें उपनयन-संस्कारसे मण्डित वेदाध्ययनके लिये अधिकृत मात्र ब्राह्मण ही है। वही संन्यासी बनकर ज्ञान-साधनाके अनुसार ज्ञानको प्राप्तकर मोक्षको प्राप्तकर सकता है। इस साधनामें क्षत्रियादि तथा स्त्रियोंकी अधिकारिता सर्वथा अवरुद्ध है।
उन्होंने जोर देकर कहा कि कुछ आचार्योंने भक्तिको भी ब्रह्म-विद्या स्वरूप स्वीकारकर उसके प्रवेश-द्वारको क्षत्रियादि एवं स्त्रियोंके लिये बन्ध कर दिया है। केवल ब्राह्मण ही भक्ति-साधनाका अधिकारी है। इस सम्बन्धमें अन्यान्य महामनीषि आचार्य सहमत नहीं हैं। उनकी परमोदार घोषणा है कि भक्ति- साधनाके सभी अधिकारी हैं। उसका सम्पादन कर सभी मानव जीवनको परम धन्यतासे मण्डित कर सकते हैं।
परन्तु शरणागतिकी उदारता तो आकाशके समान है। धन्य है वैदिक सनातन धर्म, धन्य हैं राम-कृष्णादि भगवदवतार तथा धन्य हैं वे आचार्य व सन्तगण जिन्होंने शरणागतिको प्रचारित एवं प्रसारितकर असंख्य जीवोंको परमफलसे विभूषित किया।
इन विचारोंको जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराजने अभिव्यक्त किया कल्याणकामियोंके लिये; जो अपने पटना-प्रवास के क्रममें लगातार लाला लाजपत राय सभागारमें विचारामृतकी वर्षा कर रहे हैं।
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