पटना,11 सितंबर।
सात्विक पदार्थो को सात्विक मन से परम प्रभु के लिए ही पकाया जाना और उन्हें ही सबसे पहले श्रेष्ठ प्रेम एवं संयतमना होकर समर्पित किया जाना, तत्पश्चात् उनका प्रसाद उनके ही रूप में ग्रहण करना एक आराधना ही है। यह आराधना महाराधना हो जाती है जब भोग हो प्रभुका छप्पन भोग और प्रसादग्राही हो ऊंच-नीच, जाति-भेद, वर्ण-भेद आदि से रहित सर्वजन। यह विचार जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य ने राजधानी में चल रहे दिव्य चातुर्मास्य के दौरान रखे।
राजधानी के लाला लाजपथ राय भवन में चल रहे कार्यक्रम में
रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज ने कहा कि वैसे तो वैष्णवाराधन एक चलन सा हो गया है, पर
प्रसाद की महत्ता तो तब ही अक्षुण्ण रह पाती है जब भोग के संसाधन, उसका
पाक, प्रभु को अर्पण, प्रसाद-वितरण तथा उसकी सम्प्राप्ति सब कुछ नियमानुकूल
और विधिवत हो।
दिव्य चातुर्मास्य महोत्सव महायज्ञ के दौरान रविवार को बैंक रोड के मुहाने पर मंगलमय छप्पन भोग का भंडारा का आयोजन किया गया। स्वामी जी ने इस अवसर पर कहा कि जितनी भी अच्छी-से अच्छी वस्तुएं होती हैं, उसे हम सम्यक मन से प्रभु को समर्पित करते हैं। सब उन्हीं का तो है। ’त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।’ यह केवल वाच्यात्मक नहीं भावनात्मक भी होनी चाहिये। तब प्रभु अपना सायुज्य देते हैं, यहां तक कि भोग में अपनी साम्यता भी दे देते हैं।
प्रभु ऐसे समतावादी हैं कि जो भोग वे स्वयं लेते हैं अपने भक्तों को भी प्रदान कर देते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सम्यक रूप से भावभावित प्रेमरस संपृक्त अर्पण प्रभु का सायुज्य देते हुए भोग की साम्यता भी करवा डालती है। छप्पन भोगात्मक समष्टि भण्डारा का (वैष्णवाराधन) के समायोजन में सेवा-व्रति लोग मोह-ग्रस्त हो रहे थे, परन्तु जब आचार्यश्री ने यह समझाया कि यह तो प्रभु-कार्य है, इसमें आप तो केवल निमित्तमात्र हैं। गीता में कहा है- निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन। यह एक विराट महायज्ञ है, आप इसमें निमित्त बनें, शेष तो प्रभु स्वयं संभाल लेंगे। अजरुन का मोह नष्ट हुआ और कार्य में प्रवृत्त होने पर प्रभु-साक्षात्कार भी हुआ।
सात्विक पदार्थो को सात्विक मन से परम प्रभु के लिए ही पकाया जाना और उन्हें ही सबसे पहले श्रेष्ठ प्रेम एवं संयतमना होकर समर्पित किया जाना, तत्पश्चात् उनका प्रसाद उनके ही रूप में ग्रहण करना एक आराधना ही है। यह आराधना महाराधना हो जाती है जब भोग हो प्रभुका छप्पन भोग और प्रसादग्राही हो ऊंच-नीच, जाति-भेद, वर्ण-भेद आदि से रहित सर्वजन। यह विचार जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य ने राजधानी में चल रहे दिव्य चातुर्मास्य के दौरान रखे।
पटना में समष्टि भंडारे का चित्र |
दिव्य चातुर्मास्य महोत्सव महायज्ञ के दौरान रविवार को बैंक रोड के मुहाने पर मंगलमय छप्पन भोग का भंडारा का आयोजन किया गया। स्वामी जी ने इस अवसर पर कहा कि जितनी भी अच्छी-से अच्छी वस्तुएं होती हैं, उसे हम सम्यक मन से प्रभु को समर्पित करते हैं। सब उन्हीं का तो है। ’त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।’ यह केवल वाच्यात्मक नहीं भावनात्मक भी होनी चाहिये। तब प्रभु अपना सायुज्य देते हैं, यहां तक कि भोग में अपनी साम्यता भी दे देते हैं।
प्रभु ऐसे समतावादी हैं कि जो भोग वे स्वयं लेते हैं अपने भक्तों को भी प्रदान कर देते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सम्यक रूप से भावभावित प्रेमरस संपृक्त अर्पण प्रभु का सायुज्य देते हुए भोग की साम्यता भी करवा डालती है। छप्पन भोगात्मक समष्टि भण्डारा का (वैष्णवाराधन) के समायोजन में सेवा-व्रति लोग मोह-ग्रस्त हो रहे थे, परन्तु जब आचार्यश्री ने यह समझाया कि यह तो प्रभु-कार्य है, इसमें आप तो केवल निमित्तमात्र हैं। गीता में कहा है- निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन। यह एक विराट महायज्ञ है, आप इसमें निमित्त बनें, शेष तो प्रभु स्वयं संभाल लेंगे। अजरुन का मोह नष्ट हुआ और कार्य में प्रवृत्त होने पर प्रभु-साक्षात्कार भी हुआ।
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