Thursday, September 15, 2016

पटना चातुर्मास्य में समरस समाजके निर्माणमें संतों का योगदान विषयक संगोष्ठी

पटना चातुर्मास्य के दौरान हिन्दी दिवस पर संगोष्ठी का उदघाटन करते स्वामी रामनरेशाचार्य जी एवम् हिन्दी सेवी विद्वान

पटना में जारी दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञके सम्पादन के क्रम में हिन्दी दिवस यानि 14 सितंबर को एक विद्वत् गोष्ठी का समायोजन जगदगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज के सान्निध्य में सुसम्पन्न हुआ, जिसमें भीमराव अंबेडकर विवि. मुजफ्फरपुर के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रमोद कुमार सिंह, नालंदा खुला विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर रासबिहारी सिंह, और बिहार-झारखंड के पूर्व मुख्य सचिव श्री विजय शंकर दुबे और काशी से पधारे प्रो. अशोक कुमार सिंह की गरिमामयी उपस्थिति रही। पूरे कार्यक्रम के संयोजक थे प्रो. डॉ. श्रीकान्त सिंह, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, कॉलेज ऑफ कॉमर्स, पटना। 

  सबसे पहले अभिनंदनीय संत-साहित्यके मर्मज्ञ महानुभावों का संक्षिप्त परिचय डॉ. श्रीकान्त सिंह ने कराया। कार्यक्रम का शुभारंभ जगगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज एवं संत-साहित्यके मर्मज्ञ महानुभावोंके द्वारा सूर्य-साक्षी स्वरूप दीप-प्रज्वलनन सह परम प्रभु श्री सीतारामजी के माल्यार्पणके साथ  हुआ।


मंगलाचरणके पश्चात् काशी से पधारे प्रो. अशोक सिंह को आमंत्रित किया गया, जिन्होंने एक गीत -"सात खंड नवद्वीप विदित यह कलिमल हरनी गाथा...." के माध्यमसे आद्य जगदगुरु रामानन्दाचार्यजी की जीवन- गाथा से लेकर सम्प्रति जगदगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी तक की कृतिको अपनी रसमयी वाणी में प्रस्तुत किया । शीर्षक की व्याख्या करते हुये डॉ. श्रीकान्त सिंहने ’संत’ तथा ’समरसता’ को परिभाषित किया। 


पश्चात् प्रो. रास बिहारी प्रसाद सिंह, कुलपति नालंदा खुला वि.वि. ने कहा कि मैं साधु और संतमें भेद मानता हूँ। साधु समाजसे कम जुड़ा रहता है पर संत समाजसे जुड़कर उसका कल्याणकामी होते हैं।


  बिहार और झारखंड सरकार के मुख्य सचिव और नालंदा खुला विवि के पूर्व कुलपति
श्री विजय शंकर दुबे  कहा कि वर्तमान समाज की रक्षा केवल रामानन्द सम्प्रदाय का मूल मंत्र ’जाति पाँति पूछै नहीं कोई। हरिको भजै सो हरि का होई॥’ के द्वारा ही सम्भव है और यह मात्र संत-समाज और विशेषतः स्वामी रामनरेशाचार्यजी जैसे संत ही कर सकते हैं। कोई सरकार, प्रशासन या राजनीतिज्ञ नहीं कर सकता। कबीर भी संत थे तथा तुलसीदास भी संत थे, पर समाजके प्रति जो अवदान गोस्वामी तुलसीदासजी का है वह कबीर का नहीं है। उन्होंने कहा कि ’ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी’ नहीं पर यह ’ढोल, गंवार, सूद, पशु नारी’ है यह राजापुरवालों का है। सूदका अर्थ है- हिंसक।

अगले वक्ता के रूप में उदबोधन हुआ प्रो. प्रमोद कुमार सिंह, पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष,  मुजफ्फरपुर का। इन्होंने सर्वप्रथम बताया कि ’क्षुद्र’ शब्द ही ’शूद्र’ हो गया है। काव्य-शास्त्रमें जो वक्तव्य होता है वह कवि का नहीं वरन वक्ता का होता है। अतः ’ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी’ समुद्र का वक्तव्य है। अतः तुलसीदास को इससे लांक्षित नहीं किया जा सकता। 


संत तो निःश्रेयस की ओर ले जाता है। संत सम भाव हैं, समत्व है, समदर्शी होता है। समदर्शिताके बिना कोई संत नहीं हो सकता। जैसे सदना, जो स्वामी रामानन्दका शिष्य था।


आचार्य श्री स्वामी रामनरेशाचार्यजी ने अपने मंगलाशीर्वचन में सभी विद्वानों के भावों का समर्थन करते हुए समरसता को सहज भावसे समझाया। इसके पश्चात् स्वामी जी महाराज ने विद्वानों को साविधि स्वयं अभिषेक कर पुष्पमाला, शॉल, मिष्टान, मठ साहित्य और दक्षिणादिक द्वारा सम्मानित किया। अंत में संत साहित्य के विद्वान और काशी से पधारे प्रोफेसर डॉ. उदय प्रताप सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन किया।

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