स्वामी
रामानंदाचार्य की जयंती 23 जनवरी पर विशेष
*डॉ.देवकुमार पुखराज
काशी (वाराणसी) के सुरम्य गंगा घाटों में पंच्चगंगा घाट का अपना एक
विशिष्ट स्थान है, इसी घाट पर अवस्थित
है श्रीमठ, जिसे मध्यकालीन भक्ति आंदोलन
के शीर्ष संत स्वामी रामानंद की तपः स्थली होने का गौरव प्राप्त है। उस रामानंद ने
आज से सात सौ पंद्रह वर्ष पहले समाज-जीवन
के विविध क्षेत्रों, विभिन्न मत-पंथ- संप्रदायों में
व्याप्त वैमनस्यता और कटुता को दूर कर हिंदू समाज को एक सूत्र में बांधने का कार्य
किया। स्वामीजी ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को आदर्श मानकर सरल रामभक्ति मार्ग
का निदर्शन किया। आचार्यपाद ने स्वतंत्र रूप से श्रीसंप्रदाय का प्रवर्तन किया।
जिसे रामानंदी,रामावत अथवा वैरागी
संप्रदाय भी कहते हैं। उन्होंने बिखरते और
नीचे गिरते हुए समाज को मजबूत बनाने की भावना से भक्ति मार्ग में जाति-पांति के भेद को व्यर्थ बताया और कहा कि भगवान की
शरणागति का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है- सर्वे प्रपत्तेधिकारिणो मताः
स्वामी श्रीरामानंद ने दलित, शोषित और उपेक्षित
जातियों और महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाकर समाज में समरसता का अपू्र्व
वातावरण निर्मित किया। आचार्य
रामानंद के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने तारक राममंत्र का उपदेश पेड़ पर चढ़कर दिया था,ताकि सब जाति के लोगों के कान में पड़े और अधिक से
अधिक लोगों का कल्याण हो सके। उन्होंने नारा दिया था-
"जाति-पाति पूछे न कोई , हरि को भजै सो हरि का होई "।
ऐसा कहकर उन्होंने किसी भी जाति-वर्ण
के व्यक्ति को राममंत्र देने में संकोच नहीं किया। चर्मकार जाति में जन्मे रैदास ( रविदास) और जुलाहे के घर पले-बढ़े कबीरदास इसके अनुपम उदाहरण हैं। युग प्रवर्त्तक स्वामी रामानंदाचार्य जी
महाराज के बारे में एक प्रसिद्ध पंक्ति कही--सुनी
जाती है, जिसके अनुसार-
"भक्ति द्रविड़
ऊपजी, लायो रामानंद,” अर्थात भक्ति की धारा को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में
लाने का श्रेय भी स्वामी रामानंद को ही जाता है।
उनकी शिष्य मंडली
में जहां एक ओर कबीरदास, रैदास,
सेन नाई और पीपा नरेश जैसे जाति-पांति, छुआछूत, वैदिक
कर्मकांड, मूर्तिपूजा के विरोधी
निर्गुणवादी संत थे, तो दूसरी ओर अवतारवाद के पूर्ण समर्थक अर्चावतार मानकर मूर्तिपूजा
करने वाले स्वामी अनंतानंद, भावानंद,
सुरसुरानंद, नरहर्यानंद जैसे सगुणोपासक आचार्य भक्त भी थे। उसी परंपरा में कृष्णदत्त पयोहारी जैसा तेजस्वी
साधक और गोस्वामी तुलसीदास जैसा विश्व विश्रुत, कालजयी महाकवि भी उत्पन्न हुए।
स्वामी रामानंद को रामोपासना
के इतिहास में एक युगप्रवर्तक आचार्य माना जाता है। उन्होंने श्रीसंप्रदाय के
विशिष्टाद्वैत दर्शन और प्रपत्ति सिद्धांत को आधार बनाकर रामावत संप्रदाय का
सूत्रपात किया। श्रीवैष्णवों के नारायण मंत्र के स्थान पर रामतारक अथवा षडक्षर( रां रामाय नमः) राममंत्र
को सांप्रदायिक दीक्षा का बीजमंत्र माना। बाह्य सदाचार की अपेक्षा साधना में
आंतरिक भाव की शुद्धता पर जोर दिया। छुआछूत, ऊंच-नीच का भाव मिटाकर वैष्णव मात्र में समता का समर्थन
किया। नवधा से परा और प्रेमासक्ति को श्रेयकर बताया। साथ-साथ सिद्धांतों के प्रचार में परंपरापोषित संस्कृत भाषा
की अपेक्षा हिंदी अथवा जनभाषा को प्रधानता दी। स्वामी रामानंद ने प्रस्थानत्रयी पर
विशिष्टाद्वैत सिद्धांतनुगुण स्वतंत्र आनंद भाष्य की रचना की। तत्व एवं आचारबोध की
दृष्टि से वैष्णवमताब्ज भास्कर, श्रीरामपटल, श्रीरामार्चनापद्धति, श्रीरामरक्षास्त्रोतम
जैसी अनेक कालजयी मौलिक ग्रंथों की रचना की। ऐसा माना जाता है कि संस्कृत के स्थान
पर जन सामान्य के बीच प्रचलित हिन्दी अथवा अवधि भाषा को सर्वप्रथम अपनी रचना का
माध्यम स्वामी रामानंद ने ही बनाया। इन कार्यों के चलते ही कई विद्वान उन्हें
हिन्दी का पहला कवि भी कहते हैं।
ऐसे महान तपस्वी संत, परम विचारक, समन्वयी
महात्मा का प्रादुर्भाव तीर्थराज प्रयाग में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में
हुआ था। जन्मतिथि को लेकर मतभेद होने के बावजूद रामानंद संप्रदाय में मान्यता है
कि आद्य जगद्गुरू का प्राकट्य माघ कृष्ण सप्तमी संवत् 1356 को हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित पुण्य सदन
शर्मा और माता का नाम सुशीला देवी था। धार्मिक संस्कारों वाले पंडित शर्मा मे
रामानंद को शिक्षा ग्रहण करने के लिए काशी के पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ में गुरू
राघवानंद के पास भेजा था। कुशाग्रबुद्धि के रामानंद ने अल्पकाल में ही सभी
शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन कर
प्रवीणता प्राप्त कर ली। गुरु राघवानंद और माता-पिता
के दबाव के बावजूद उन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार नहीं किया और आजीवन विरक्त रहने
का संकल्प लिया। बाध्य होकर गुरुदेव ने स्वामी रामानंद को रामतारक मंत्र की दीक्षा
प्रदान की। उन्होंने श्रीमठ की गुह्य साधनास्थली में प्रविष्ट हो राममंत्र का
अनुष्ठान तथा अन्यान्य तांत्रिक साधनाओं का प्रयोग करते हुए घोर तपश्चर्या की।
योगमार्ग की तमाम गुत्थियों को सुलझाते हुए अष्टांग योग की साधना पूर्ण की।
दीर्घायुष्य प्राप्त करने के कारण जगद्गुरु राघवानंद ने अपने तेजस्वी और परमप्रिय
शिष्य रामानंद को श्रीमठ की पावन पीठ पर अभिषिक्त कर दिया। अपने पहले संबोधन में
ही जगद्गुरु रामानंदाचार्य ने हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं अंधविश्वासों
को दूर करने तथा परस्पर आत्मीयता एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार के बदौलत धर्म रक्षार्थ
विराट संगठित शक्ति खड़ा करने का संकल्प व्यक्त किया।
श्रीसीताजी द्वारा
पृथ्वी पर प्रवर्तित विशिष्टाद्वैत (राममय
जगत की भावधारा) सिद्धांत तथा
रामभक्ति की पावन धारा को मध्यकाल में स्वामी श्रीरामानंदाचार्य ने अनुपम तीव्रता
प्रदान की। उन्होंने क्रुर, विवेकशून्य, पूर्वाग्रही तथा असहिष्णु यवन शासकों के अत्याचारों का
मुखर विरोध किया। शंखध्वनी कर अपनी यौगिक शक्ति से ऐसा माहौल बनाया कि तत्कालीन
मुगल सम्राट तुगलक को कबीरदास के माध्यम से स्वामीजी के पास शरणागत होकर क्षमा
याचना करनी पड़ी। उसे हिन्दुओं पर लगे समस्त प्रतिबंध हटाने और जजियाकर को समाप्त
करने का आदेश निर्गत करना पड़ा।
मध्ययुगीन धर्म साधना के केंद्र में स्वामी जी
की स्थिति चतुष्पथ के दीप-स्तंभ
जैसी है। उन्होंने अभूतपूर्व
सामाजिक क्रांति का श्रीगणेश करके बड़ी जीवटता से समाज और संस्कृति की रक्षा की। उन्हीं के चलते उत्तरभारत में तीर्थ
क्षेत्रों की रक्षा और वहां सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना संभव हो सकी। उस युग की परिस्थितियों के अनुसार, वैरागी
साधु समाज को अस्त्र-शस्र से
सज्जित अनी के रूप में संगठित कर तीर्थ-व्रत की रक्षा के लिए, धर्म
का सक्रिय मूर्तिमान स्वरूप खड़ा किया। तीर्थस्थानों से लेकर गांव-गांव में वैरागी साधुओं ने अखाड़े स्थापित किए। आज भी निर्वाणी, दिगम्बर और निर्मोही नामक तीन मूल अखाड़े और उसकी कई
शाखाएं देश भर में सनातन धर्म की मूल पताका को लहरा रही हैं। मूल्य
ह्रास की इस विषम अवस्था में भी संपूर्ण संसार में रामानंद संप्रदाय के सर्वाधिक मठ, मंदिर और संत-महात्मा
हैं, आज भी इस संप्रदाय के आश्रमों में संत-साधु और गृहस्थ की
सेवा, रामगुणगान, अखंड श्रीरामनाम संकीर्तन व्यवस्थित हैं और
सर्वत्र आध्यामिक आलोक प्रसारित कर रहे हैं। इस संप्रदाय की व्यापकता का हिसाब इस बात से
भी लगाया जा सकता है कि वैष्णवों
के बावन द्वारों में सर्वाधिक छत्तीस
द्वारे इसी संप्रदाय से जुड़े हैं। कुंभ मेले के दौरान रामानंदी साधुओं के विराट स्वरुप, इनकी उदारता और अन्नदान की परंपरा को कोई भी देख सकता
है।
युगप्रवर्तक स्वामी रामानंदाचार्यजी महाराज द्वारा प्रर्वतित मूल
रामानंद संप्रदाय के अलावे इसकी
शाखा, प्रशाखा और अवान्तर शाखाएं
जैसे- रामस्नेही, कबीरदासी, घीसापंथी, दादूपंथ आदि नामों से सक्रिय हैं, जो
इस संप्रदाय की मूलभावना की
संवाहिका बनी हैं। यह स्वामी रामानंद के ही व्यक्तित्व का प्रभाव
था कि हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य,
शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष, मत-मतांतर का झगड़ा और परस्पर सामाजिक कटुता बहुत हद तक कम हो गई।
बलपूर्वक
इस्लाम धर्म में दीक्षित हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए
परावर्तन संस्कार का महान कार्य सर्वप्रथम स्वामी रामानंदाचार्य जी ने ही प्रारंभ किया था। इतिहास साक्षी है कि अयोध्या के राजा हरिसिंह के
नेतृत्व में चौंतीस हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के
लिए प्रेरित किया था।
काशी
के परम पावन पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ, आचार्यपाद द्वारा प्रवाहित श्रीराम प्रपत्ति की
पावनधारा के मुख्यकेंद्र के रूप में प्रतिष्ठित होकर उसी ओजस्वी परंपरा का अनवरत
प्रवर्तन कर रहा है। आज भी श्रीमठ आचार्यचरण
की परिकल्पना के अनुरूप उनके द्वारा प्रज्ज्वलित दीप से जनमानस को आलोकित कर रहा है। यही वह दिव्यस्थल है, जहां विराजमान होकर स्वामीजी ने अपने परमप्रतापी
शिष्यों के माध्यम से अपनी अनुग्रहशक्ति का उपयोग किया था। रामानंदाचार्य पीठ के नाम से प्रसिद्ध श्रीमठ, दुनिया भर में फैले
श्रीराम भक्तों की श्रद्धा का अनुपम केन्द्र है और सगुण एवं निर्गुण रामभक्ति
परंपरा और रामानंद संप्रदाय का एकमात्र मूल
आचार्यपीठ अथवा दूसरे शब्दों में कहें को मुख्यालय है। श्रीमठ में अवस्थित
रामानंदाचार्य जी की पावन चरणपादुका दुनियाभर में बिखरे रामानंदी संतों,
तपस्वियों एवं अनुयायियों के बीच समादृत है।
श्रीमठ
के वर्तमान पीठासीन आचार्य स्वामी रामनरेशाचार्यजी भी स्वामी रामानंदाचार्च की
प्रतिमूर्ति जान पड़ते हैं। इनका
ज्ञान, वग्मिता और सबसे अच्छी इनकी उदारता और संयोजन चेतना को देखकर
यह कल्पना किया जा सकता है कि स्वामी रामानंद का व्यक्तित्व कैसा रहा होगा। वर्तमान जगद्गुरू रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज के सत्प्रयासों का नतीजा है
कि श्रीमठ से कभी अलग हो चुकी कबीरदासीय, रविदासीय, रामस्नेही,
प्रभृति परंपराएं वैष्णवता के सूत्र में बंधकर श्रीमठ से एकरूपता
स्थापित कर रही है। कई परंपरावादी मठ -मंदिरों
की इकाईयां श्रीमठ में विलीन हो रही हैं।
तीर्थराज प्रयाग के दारागंज स्थित आद्य जगद्गुरू रामनंदाचार्य का प्राकट्यधाम भी
इनकी प्रेरणा से फिर भव्य स्वरूप में प्रकट हुआ है।
स्वामी रामानंद के द्वारा दी गई देश-धर्म के प्रति इन अमूल्य सेवाओं ने सभी
संप्रदायों के वैष्णवों के हृदय में उनका महत्व स्थापित कर दिया। भारत के सांप्रदायिक इतिहास में परस्पर विरोधी
सिद्धांतों तथा साधना-पद्धतियों
के अनुयायियों के बीच इतनी लोकप्रियता उनके पूर्व किसी संप्रदाय प्रवर्तक को
प्राप्त न हो सकी। महाराष्ट्र के
नाथपंथियों ने ज्ञानदेव के पिता विट्ठल पंत के गुरू के रूप में उन्हें पूजा,
अद्वैत मतावलंबियों ने ज्योतिर्मठ के
ब्रह्मचारी के रूप में उन्हें अपनाया। बाबरीपंथ के संतों ने अपने संप्रदाय के प्रवर्तक मानकर उनकी वंदना की और कबीर के
गुरू तो वे थे ही, इसलिये कबीरपंथियों में उनका
आदर स्वाभाविक है। स्वामी रामानंदाचार्य के
व्यक्तित्व की इस व्यापकता का रहस्य- उनकी
उदार और समन्वयकारी विचारधारा में निहित है।
निश्चय हीं उनके विराट व्यक्तित्व एवं व्यापक महत्ता के अनुरूप कतिपय आर्षग्रंथ
एवं संत-साहित्य में उल्लेखित
उनके रामावतार होने का वर्णन अक्षरश: प्रमाणित होता है। अगस्त संहिताकार ने लिखा है कि - रामानंद:
स्वयं राम: प्रादुर्भूतो महीतले। अर्थात स्वयं श्रीराम ही
पृथ्वी पर रामानंद के रुप में अवतार लिये। ऐसे महान तपस्वी, साधक और मानवता के परम उन्नायक को उनकी जयंती पर शत-शत नमन।
-इति-
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