स्वामी रामानंद की 723 वीं जयंती (4 फरवरी, 2021) पर विशेष
· देवकुमार
पुखराज
भारत के मध्यकाल में ही भक्ति आंदोलन का सूत्रपात माना जाता
है. उस आंदोलन के शिखर संत थे स्वामी रामानंद ( Swami Ramanand). वे उत्तर
भारत में जन्म लेने वाले भक्ति के पहले आचार्य हुए, जिन्होंने रामभक्ति की धारा को
समाज के निचले तबके तक पहुंचाया. कहावत है- भक्ति द्रविड़ उपजी लाये रामानन्द,
प्रकट किया कबीर ने, सात दीप नौ खंड. उस भक्ति काल को ही आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग कहते हैं.
आरंभिक जीवन और शिक्षा-दीक्षा-
स्वामी रामानंद का प्रादुर्भाव तीर्थराज प्रयाग ( Prayagraj) में
कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में आज से 723 साल पहले माघ कृष्ण सप्तमी संवत् 1356 को
हुआ था. पिता का नाम पंडित पुण्य सदन शर्मा और माता का नाम सुशीला देवी था.
माता-पिता ने धार्मिक अभिरुचि देख बालक रामानंद को काशी (Kashi) के पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ ( Srimath) में
गुरू राघवानंद के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण के लिए भेजा. कुशाग्रबुद्धि के
रामानंद ने अल्पकाल में ही सभी शास्त्रों, वेदों- पुराणों का अध्ययन कर प्रवीणता प्राप्त कर ली.
परिजनों-गुरुजनों के दबाव के बावजूद गृहस्थाश्रम स्वीकार नहीं किया और आजीवन
विरक्त रहने का संकल्प लिया. स्वामी राघवानंद से रामतारक मंत्र की दीक्षा लेकर
स्वामी रामानंदाचार्य बन गये.
स्वामी रामानंद की शिष्य परंपरा-
स्वामीजी ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को आदर्श मानकर सरल
रामभक्ति मार्ग का निदर्शन किया. उनकी शिष्य मंडली में जहां एक ओर कबीरदास, रविदास, सेननाई और पीपानरेश जैसे मूर्तिपूजा के विरोधी निर्गुणवादी संत थे तो दूसरी ओर अवतारवाद
के पूर्ण समर्थक अर्चावतार मानकर मूर्तिपूजा करने वाले स्वामी अनंतानंद, भावानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद जैसे सगुणोपासक
आचार्य भक्त भी थे. उसी परंपरा में कृष्णदत्त पयोहारी जैसा तेजस्वी साधक और
गोस्वामी तुलसीदास जैसा विश्वविश्रुत महाकवि भी उत्पन्न हुआ. स्वामी रामानंद ने दलितों-
अछूतों के साथ ही महिलाओं को भी भक्ति के वितान में समान स्थान दिया. उनकी शिष्य
मंडली में सुरसरी और पदमावती जैसी विदुषी महिलाओं का भी विशिष्ट स्थान
आता है. बैरागी जमात इनको द्वादश महाभागवत कहकर पूजता है.
कबीरदास ऐसे बने थे शिष्य-
कबीरदास (Kabir das) के बारे में प्रसिद्ध है कि स्वामी रामानंद का आशीर्वाद
पाने के लिए उनको काशी के पंचगंगा घाट की
सीढ़ियों पर अहले सुबह लेटना पड़ा था, जिस रास्ते स्वामी रामानंद नित्य सुबह
गंगास्नान के लिए जाया करते थे. कहते हैं कि अचानक स्वामी रामानंद का पैर कबीर पर
पड़ा और वो अफसोस में राम-राम बच्चा बोल पढ़े. कबीर ने रामानंद से अपने को शिष्य
बनाने का आग्रह किया और रामानंद ने जुलाहे घर पले-बढ़े कबीर को ह्रदय से लगा लिया.
राम नाम ही उनका गुरुमंत्र हो गया.
साधु-संतों की सबसे बड़ी जमात-
स्वामी रामानंद द्वारा स्थापित रामानंद सम्प्रदाय या रामावत
संप्रदाय वैष्णवों की सबसे बड़ी धार्मिक जमात है. वैष्णवों के 52 द्वारों में 36 द्वारे केवल रामानंदियों के हैं. इस संप्रदाय
के संत बैरागी भी कहे जाते हैं. इनके अपने निर्वाणी, निर्मोही और दिगम्बर नाम से
तीन अखाड़े हैं. रामानंद सम्प्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएं जैसे रामस्नेही, सखी
संप्रदाय, कबीरदासी, घीसापंथी, दादूपंथ आदि नामों से फैली हुई हैं. अयोध्या, चित्रकूट, नासिक, हरिद्वार में इस संप्रदाय के
सैकड़ो मठ-मंदिर हैं. काशी के पंचगंगा घाट पर मौजूद श्रीमठ, रामानंदी संतों-भक्तों का मूल गुरुस्थान है. उसे सगुण-निर्गुण
रामभक्ति परंपरा और रामानंद संप्रदाय का मूल आचार्यपीठ कहा जाता है. वहां की गादी
पर प्रतिष्ठित आचार्य को जगदगुरु रामानंदाचार्य की पदवी परंपरा से मिलती है.
वर्तमान में स्वामी रामनरेशाचार्य जगदगुरु रामानंदाचार्य के पद पर आसीन है.
स्वामी रामानंद की भक्ति परंपरा और सिद्धांत-
स्वामी रामानंद को रामोपासना के इतिहास में एक युगप्रवर्तक
आचार्य माना जाता है. उन्होंने श्रीसंप्रदाय के विशिष्टाद्वैत दर्शन और प्रपत्तिसिद्धांत
को आधार बनाकर रामावत संप्रदाय का संगठन किया. श्रीवैष्णवों के नारायण मंत्र के
स्थान पर रामतारक अथवा षडाक्षर राममंत्र को गुरुदीक्षा का बीजमंत्र माना. बाह्य
सदाचार की अपेक्षा साधना में आंतरिक भाव की शुद्धता पर जोर दिया. छुआछूत, ऊंच-नीच का भाव मिटाकर वैष्णव
मात्र में समता का समर्थन किया, नवधा से परा और प्रेमासक्ति को श्रेयकर बताया. कह
सकते हैं कि मध्ययुगीन धर्म साधना के केंद्र में स्वामी जी की स्थिति चतुष्पथ के
दीप-स्तंभ जैसी है. उन्होंने साधु समाज को अस्त्र-शस्र से लैश कर तीर्थ-व्रतों की
रक्षा की. तीर्थस्थलों से लेकर गांव-गांव तक में वैरागी साधुओं ने मठ-मंदिर,
ठाकुरबाड़ी स्थापित किये. आज भी उत्तर भारत में रामानंद संप्रदाय के ही सर्वाधिक
साधु-संत और मंदिर हैं, जहां संत-साधु, अभ्यागत सेवा, रामगुणगान, अखंड रामनाम संकीर्तन व्यवस्थित तरीके से जारी
हैं.
रामानंद स्वामी का धार्मिक अवदान-
आचार्य रामानंद के बारे में प्रसिद्ध है कि तारक राममंत्र
का उपदेश उन्होंने पेड़ पर चढ़कर दिया था ताकि सब जाति के लोगों के कानों में पड़े
और अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो सके. कहते हैं स्वामीजी की यौगिक शक्ति के
चमत्कार से प्रभावित होकर तत्कालीन मुगल शासक मोहम्मद तुगलक संत कबीरदास के माध्यम
से स्वामी रामानंद की शरण में आया और हिंदुओं पर लगे समस्त प्रतिबंध और जजियाकर को
हटाने का निर्देश जारी किया. बलपूर्वक इस्लाम धर्म में दीक्षित हिंदुओं को फिर से
हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए परावर्तन संस्कार का महान कार्य सर्वप्रथम स्वामी
रामानंदाचार्च ने ही प्रारंभ किया. इतिहास साक्षी है कि अयोध्या के राजा हरिसिंह
के नेतृत्व में 34 हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के
लिए प्रेरित किया.
स्वामी रामानंद की सारस्वत साधना-
स्वामी रामानंदाचार्य ने अपने सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार
में परंपरापोषित संस्कृत भाषा की अपेक्षा हिंदी अथवा जनभाषा को प्रधानता दी. उन्होंने
प्रस्थानत्रयी पर विशिष्टाद्वैत सिद्धांतनुगुण स्वतंत्र आनंद भाष्य की रचना की.
तत्व एवं आचारबोध की दृष्टि से वैष्णवमताब्ज भास्कर, श्रीरामपटल, श्रीरामार्चनापद्धति, श्रीरामरक्षास्त्रोतम जैसी अनेक कालजयी मौलिक
ग्रंथों की रचना की. हनुमान जी प्रसिद्ध आरती के रचयिता भी स्वामी रामानंद को ही
माना जाता है. देश-धर्म के प्रति इन अमूल्य सेवाओं ने सभी संप्रदायों के वैष्णवों
के हृदय में उनका महत्व स्थापित कर दिया. भारत के सांप्रदायिक इतिहास में परस्पर
विरोधी सिद्धांतों तथा साधना-पद्धतियों के अनुयायियों के बीच इतनी लोकप्रियता उनके
पूर्व किसी संप्रदाय प्रवर्तक को प्राप्त न हो सकी. शायद इसीलिए कतिपय आर्षग्रंथ
एवं संत-साहित्य में उल्लेखित उनके रामावतार होने का वर्णन अक्षरश: प्रमाणित होता
है. जिसमें कहा गया है- रामानंद: स्वयं राम: प्रादुर्भूतो महीतले. अर्थात राम ने
ही धरती पर स्वयं रामानंद के रुप में अवतार लिया. इतिः
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