Wednesday, October 28, 2009

मोक्ष प्राप्ति का पर्व अक्षय नवमी

हमारे धर्म और संस्कृति में कार्तिकमहीने को बहुत ही पावन माना जाता है। दीपावली से लेकर पूर्णिमा स्नान तक कई पर्व आते हैं, जिनमें अक्षय नवमी भी एक है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाने वाले इस पर्व में आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। खिचड़ी आदि पकाकर केले के पत्तों पर सामूहिक रूप से भोजन करने का भी विधान है।

अक्षय नवमी का महत्व : एक बार भगवान विष्णु से पूछा गया कि कलियुग में मनुष्य किस प्रकार से पाप मुक्त हो सकता है। भगवान ने इस प्रश्न के जवाब में कहा कि जो प्राणी अक्षय नवमी के दिन मुझे एकाग्र हो कर ध्यान करेगा, उसे तपस्या का फल मिलेगा। यही नहीं शास्त्रों में ब्रह्म ïहत्या को घोर पाप बताया गया है। यह पाप करने वाला अपने दुष्कर्म का फल अवश्य भोगता है, लेकिन अगर वह अक्षय नवमी के दिन स्वर्ण, भूमि, वस्त्र एवं अन्नदान करे और वह आंवले के वृक्ष के नीचे लोगों को भोजन कराए, तो इस पाप से मुक्त हो सकता है।

अक्षय नवमी कथा : पौराणिक ग्रंथों में अक्षय नवमी को लेकर कई किंवदंतियां हैं। प्राचीन काल में प्राचीपुर केे राजकुमार मुकुंद देव जंगल में शिकार खेलने गए हुए थे। तभी उनकी नजर एक सुंदरी पर पड़ी। उन्होंने युवती से पूछा, 'भद्रे तुम कौन हो और तुम्हारा नाम क्या है? ’ युवती ने बताया- ''मेरा नाम किशोरी है। मैं इसी राज्य केव्यापारी कनकाधिप की पुत्री हूं, लेकिन आप कौन हैं ’ ’? मुकुंद देव ने अपना परिचय देते हुए उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की। इस पर किशोरी रोने लगी। मुकुंद देव ने उसके आंसू पोंछे और रोने का कारण पूछा। उसने उत्तर दिया, 'मैं आपकी मृत्यु का कारण नहीं बनना चाहती। वैधव्य की पीड़ा बड़ी भयंकर होती है। मेरे भाग्य में पति सुख लिखा ही नहीं है। राज ज्योतिषी ने कहा है कि मेरे विवाह मंडप में बिजली गिरेगी और वर की तत्काल मृत्यु हो जाएगी।

लेकिन मुकुंद देव को अपनी बात पर अडिग देख किशोरी ने कहा - ''राजन, आप कुछ समय प्रतीक्षा करें। मैं अपने अराध्य देव की तपस्या करके उनसे अपना भाग्य बदलने की प्रार्थना करूंगी। ’ ’ मुकुंद देव इस बात से सहमत हो गए किशोरी शिव की आराधना में लीन हो गई। कई माह पश्चात्ï शिवजी प्रसन्न होकर उसके समक्ष प्रकट हुए और वर मांगने को कहा। किशोरी ने अपनी व्यथा सुनाई।

शिवजी बोले, 'गंगा स्नान करके सूर्य देव की पूजा करो, तभी तुम्हारी भाग्य रेखा बदलेगी और वैधव्य का योग मिटेगा। किशोरी गंगा तट पर आकर रहने लगी। वह नित्य गंगा केे जल में उतरकर सूर्य देव की आराधना करने लगी।

उधर राजकुमार मुकुंद देव भी गंगा केे किनारे एक कुटी में रहकर ब्रह्ममुहूर्त में गंगा में प्रवेश कर सूर्य के उदय होने तक प्रार्थना करने लगे।

इसी बीच एक दिन लोपी नामक दैत्य की ललचाई नजर किशोरी पर पड़ी। वह उस पर झपटा। तभी सूर्य भगवान ने अपने तेज से उसे भस्म कर डाला और किशोरी से कहा कि कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को तुम आंवले के वृक्ष के नीचे विवाह मंडप बनाकर मुकुंद देव केे साथ विवाह रचाना। तब वैधव्य योग हटेगा और दांपत्य सुख पाओगी। किशोरी और मुकुंद देव ने मिलकर मंडप बनवाया और उस अवसर पर देवताओं को भी आमंत्रित किया। विवाह रचाने के लिए महर्षि नारद जी आए। फेरों के दौरान आकाश से गडग़ड़ाहट के साथ बिजली गिरी, लेकिन आंवले के वृक्ष ने उसे रोक लिया और किशोरी के सुहाग की रक्षा की। वहां उपस्थित लोग जय-जयकार करने लगे। तभी से आंवले के वृक्ष को पूजनीय माना जाने लगा। कहा जाता है कि आज भी आंवले के वृक्ष के नीचे कार्तिक शुक्ल की अक्षय नवमी के दिन देवतागण एकत्रित होते हैं और अपने भक्तगणों को आशीर्वाद देते हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार देवी लक्ष्मी तीर्थाटन पर निकली तो रास्ते में उनकी इच्छा हुई कि भगवान विष्णु और शिव की पूजा की जाए। देवी लक्ष्मी उस समय सोचने लगीं कि एक मात्र चीज क्या हो सकती है जिसे भगवान विष्णु और शिव जी पसंद करते हों, उसे ही प्रतीक मानकर पूजा की जाए। इस प्रकार काफी विचार करने पर देवी लक्ष्मी को ध्यान पर आया कि धात्री ही ऐसी है, जिसमें तुलसी और बिल्व दोनों के गुण मौजूद हैं फलत: इन्हीं की पूजा करनी चाहिए। देवी लक्ष्मी तब धात्री के वृक्ष की पूजा की और उसी वृक्ष के नीचे प्रसाद ग्रहण किया। इस दिन से ही धात्री के वृक्ष की पूजा का प्रचलन हुआ

पूजा विधि : अक्षय नवमी के दिन संध्या काल में आंवले के पेड़ के नीचे भोजन बनाकर लोगों को खाना खिलाने से बहुत ही पुण्य मिलता है। ऐसी मान्यता है कि भोजन करते समय थाली में आंवले का पत्ता गिरे तो बहुत ही शुभ माना जाता है। इससे यह संकेत होता है कि आप वर्ष भर स्वस्थ रहेंगे। इस दिन आंवले के वृक्ष के सामने पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठें। आंवले के वृक्ष की पंचोपचार सहित पूजा करें फिर वृक्ष की जड़ को दूध से सिंचन करें। कच्चे सूत को लेकर धात्री के तने में लपेटें। अंत में घी और कर्पूर से आरती और परिक्रमा करें।

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