Tuesday, January 13, 2009
स्वामी रामानंदाचार्य पर नई किताब- पायसपायी
इस धराधाम पर रामावतार के रूप में स्वामी रामानंद के प्रादुर्भाव होने के करीब सात सौ नौ वर्षों बाद रामानंद जी महाराज का वांग्मय अवतार हुआ है. इसे लिखा है हिंदी साहित्य जगत के मूर्धन्य विद्वान डॉ दयाकृष्ण विजयवर्गीय विजय ने. राजस्थान के कोटा निवासी डॉ विजय हिंदी के सिद्ध कवि और प्रसिद्ध लेखक है. विगत साठ वर्षों से उनकी लेखनी अविराम गति से चल रही है. जीवन के आठवें दशक की ये औपन्यासिक रचना निश्चित रूप से उनकी परिपक्वता और अनुभव की सघनता को मूर्तिमंत करती हैं. जगतगुरू रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी रामनरेशाचार्य कहते हैं कि पायसपायी का प्राकट्य अपूर्व है. लेखक डॉ विजय की अद्भुत ज्ञानराशि, अनुपम अभिव्यक्ति क्षमता, हिंदी की व्यापक परिधि, औपन्यासिक जगत का विशिष्ट आकर्षण एवं आचार्य प्रवर के समान ही लेखक की राष्ट्रीय और मानवीय संवेदना इस ग्रंथ में अपूर्वता के साथ अभिव्यक्त हुई है. वैसे आचार्य प्रवर का संस्कृत कावात्मक अवतार श्री रामानंद दिग्विजय के रूप में पहले ही हो चुका है, जिसकी रचना जगदगुरू रामानंदाचार्य स्वामी स्वामी भगवदाचार्य जी महाराज ने की थी, जो रामभक्त परंपरा ही नहीं, अपितु संपूर्ण संस्कृत वांग्मय, हिंदी वांग्मय रूपी आकाश के अनुपम प्रकाशक थे. श्री आचार्य विजय नाम से चंपू काव्य के रूप में आचार्यश्री की जीवनगाथा प्रकट हो चुकी है, जिसके प्रणेता महामनीषी ख्यातिलब्ध रचनाकार गोस्वामी श्रीहरिकृष्ण शास्त्री थे. सुश्री अमिता शाह द्वारा भी हिंदी में काशी मार्तंड और शंखनाद के रूप में दो वांग्मय प्राकट्य आचार्यश्री का हो चुका है. इन ग्रंथों से पूर्व प्रसंग पारिजात में आचार्यश्री के संबंध में प्रमाणिक जानकारी पहले भी दी जा चुकी है.
पायसपायी में स्वामी रामानंद का सौमनस्य, साधुचरित्र, धर्म-आध्यात्म, तपश्चर्या और राष्ट्रीय चेतना की महत्ता को प्रमुखता के साथ प्रकट किया गया है. इस कृति में एक ऐसे महनीय व्यक्तित्व का आख्यान है, जिसकी प्रभविष्णुता से पूरा मध्यकाल आलोकित होता रहा है. उनकी प्रगतिशील, सर्वस्पर्शी जीवन दृष्टि, समन्वय की भावना, राष्ट्रीय एवं मानवीय चेतना तथा चमात्कारिक व्यक्तित्व तत्कालीन सम्राटों और संप्रदायों को निष्प्रभ कर दिया था. मुसलमान शासकों की हिंदुओं के प्रति क्रूर और प्रतिशोधी दृष्टि, राजाज्ञों की विसंगतियां, धर्म के नाम पर आडंबर, स्वामी जी के एक ही शंखनाद से इस उपन्यास में तिरोहित होते दिखाई देते हैं. इस प्रकार के विविध प्रसंगों की सर्जनाएं तथा स्थपनाएं उपन्यास की पठनीयता में रोचकता उत्पन्न करती है. औपन्यासिक तत्वों से भरपूर यह रचना एक प्रकार से स्वामी रामानंद का जीवन चरित ही है.
पायसपायी के लेखक के प्रेरणास्रोत रहे सारनाथ वाराणसी निवासी और संत साहित्य के मूर्धन्य विद्वान डॉ उदय प्रताप सिंह मानते हैं कि डॉ विजय ने इस पुण्य श्लोक पर लेखनी चलाकर स्वयं को जीवेम शरद: शतम कर लिया है. कहना न होगा कि आज भी शताधिक संप्रदायों और करोड़ों नागरिकों का जीवन स्वामी जी के उपदेशों और संदेशों से ही पाथेय ग्रहण कर जीवंत बना हुआ है. किसी रचना की सफलता का निकस उसके आलोकमय तथ्यों से ही निर्धारित होता है. आलोकमय जीवन का प्रतिमान उदात्त भाव के सृजन में खोजा जाना अपेक्षित है. इस दृष्टि से भी यह रचना बेजोड़ है. इस कृति की सबसे बड़ी विशिष्टता भाव एवं कथाशिल्प की समन्वयशीलता में परिलक्षित होती है. भाषा की सहजता एवं प्रवहनशीलता कथ्यों और संवादों की सार्थकता, अर्थवता, घटनाओं का संयोजन और लयात्मकता तथा स्वामीजी की वाणियों को विविध प्रसंगानुकूल संदर्भों से जोड़ने की अद्भुत निपुणता ने इस कृति को ऊंचाई प्रदान की है. रचना में पाठकीय संवेदना और कथारस की धारा समानांतर चलती है. संपूर्ण रचना पढ़ने के उपरांत मध्यकालीन भारतीय समाज का स्पष्ट चित्र उभरता है. इस बिंब में स्वामी रामानंदाचार्य का व्यक्तित्व और महत्व, धर्म-आध्यात्म का पारंपरिक प्रवाह और तत्कालीन शासन की विद्रूपताएं एकसाथ परिलक्षित होती हैं. साहित्य ऊंचाई के साथ ऐतिहासिक दस्तावेज के अनुच्छेद भी इस कृति में खोजी जा सकती है. स्वामी रामनरेशाचार्य जी के शब्दों में कहें तो डॉ विजय के इस अवदान के लिए हिंदी जगत इनका सर्वदैव ऋणी रहेगा. ऐसी सेवा की प्राप्ति परम प्रभू श्रीराम तथा आचार्यवर के विशेष अनुग्रह के बिना संभव नहीं.
पायसपायी के प्रकाशक
जगदगुरू रामानंदाचार्य स्मारक सेवान्यास
श्रीमठ पंचगंगा घाट, काशी वाराणसी
पुस्तक का मूल्य- 150 रुपये मात्र
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