बथुआ: आयुर्वेदिक औषधि जो हमारे खेतों में आसानी से उपलब्ध है।
सर्दियों की ठंडी हवा में, जब खेतों की मिट्टी नम रहती है, वहाँ एक साधारण-सी झाड़ी उग आती है—बथुआ। वैज्ञानिक भाषा में चेनोपोडियम एल्बम कहलाने वाली यह जड़ी-बूटी, जो कभी खरपतवार समझी जाती थी, आज पोषण और चिकित्सा की दृष्टि से एक अनमोल रत्न साबित हो रही है। प्राचीन ग्रंथों में इसे 'वास्तूक' नाम से जाना जाता है, जो न केवल भोजन है बल्कि त्रिदोष-नाशक औषधि भी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि बथुआ के बीजों से बनी रोटी को हिमालयी इलाकों में 'सूरा' नामक किण्वित पेय बनाया जाता है, जो ऊर्जा का स्रोत बनता है? या फिर, इसके पत्तों का लेप जलने पर लगाने से त्वचा की कोशिकाएँ तेजी से पुनर्जीवित हो उठती हैं—एक ऐसा रहस्य जो आधुनिक एंटीऑक्सीडेंट क्रीमों से कहीं आगे है।
बथुआ की पौष्टिकता को सत्यापित करने पर पता चलता है कि यह वाकई विटामिनों और खनिजों का भंडार है। 100 ग्राम कच्चे बथुए में पाए जाते हैं:—
विटामिन A (580 माइक्रोग्राम, दृष्टि और त्वचा के लिए अनिवार्य),
विटामिन C (80 मिलीग्राम, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला),
विटामिन B1 (0.16 मिलीग्राम),
B2 (0.44 मिलीग्राम),
B3 (1.2 मिलीग्राम),
B5 (ट्रेस),
B6 (0.274 मिलीग्राम) और
B9 (फोलेट, 30 माइक्रोग्राम) प्रचुर हैं। खनिजों में कैल्शियम (309 मिलीग्राम, हड्डी मजबूती के लिए), लोहा (1.2 मिलीग्राम, रक्ताल्पता निवारक), मैग्नीशियम (34 मिलीग्राम), मैंगनीज (0.782 मिलीग्राम), फास्फोरस (72 मिलीग्राम), पोटैशियम (452 मिलीग्राम), सोडियम (43 मिलीग्राम) तथा जिंक (0.44 मिलीग्राम) प्रमुख हैं। कुल ऊर्जा 43 किलोकैलोरी है, जिसमें 7.3 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 4.2 ग्राम प्रोटीन और 4 ग्राम फाइबर सम्मिलित। ये आंकड़े इसे सुपरफूड की उपाधि देते हैं, विशेषकर विटामिन A की उच्चता नेत्र स्वास्थ्य के लिए वरदान सिद्ध हुई है। ये तथ्य आधुनिक पोषण विज्ञान से सिद्ध हैं, जो बथुए को सुपरफूड की श्रेणी में रखते हैं।
आयुर्वेद में बथुआ को 'वास्तूक' कहकर विशेष स्थान दिया गया है और इसे शाकों में सर्वश्रेष्ठ (निकृष्ट :सरसो साग) बताया गया है। इसके गुण और कर्म इस प्रकार हैं:—
ये गुण चरक संहिता और भावप्रकाश निघंटु जैसे ग्रंथों में वर्णित हैं। उदाहरणस्वरूप, बथुआ का सेवन रक्तपित्त (रक्तस्राव विकार) में लाभकारी है, क्योंकि यह पित्त की अतिरिक्त गर्मी को शांत करता है। इसके अलावा, यह कृमिनाशक (कीड़े नष्ट करने वाला) है—जिसके कारण आंतों के परजीवी आसानी से नष्ट हो जाते हैं। एक कम ज्ञात तथ्य: बथुआ का तेल (पत्तों से निकाला गया) एंटीफंगल गुणों से भरपूर है, जो त्वचा संक्रमणों में चमत्कारिक काम करता है।
आयुर्वेद के ग्रन्थों में वास्तूक की दो जातियाँ बताई गई हैं:
डंठल और पत्तियों के पीछे बैंगनी-लाल रंग, स्वाद मीठा, ऑक्सालिक एसिड बहुत कम।
रस के लिए और पथरी-गठिया वालों के लिए सबसे श्रेष्ठ।
गाँव में आज भी कहते हैं:
“हरा खाओ साग बनाओ, लाल खाओ रस बनाओ।” बस इतना याद रखो – लाल वाला मिल जाए तो पहले उसे चुन लो, खासकर रस के लिए। हरा वाला साग-पराठे में डालो, मजा आ आएगा। दोनों अच्छे, बस प्रयोग अलग। कुछ लोग लाल को रोगग्रस्त बथुआ समझकर फेंक देते हैं, पर उनकी गलत धारणा है।
आयुर्वेद में सामान्य शाकों को नेत्रों के लिए हानिकारक माना गया है, क्योंकि वे कफ वृद्धि कर दृष्टि को मंद करते हैं। किंतु पंच शाक—जीवंती (लेप्टाडेनिया रेटिकुलाटा), वास्तूक (बथुआ), मत्स्याक्षी (अल्टरनेंथेरा सैसिलिस), मेघनाद (अमरैंथस स्पाइनोसस, चौलाई का एक रूप) तथा पुनर्नवा (बोएरहेविया डिफ्यूसा)—अपवाद हैं। ये सभी त्रिदोषहर हैं और नेत्रज्योति वर्धक।
योगरत्नाकर (नेत्र रोग अध्याय) में श्लोक है:
"शाकानि सर्वाणि हि चक्षुष्याणि न भवन्ति, शाकपञ्चकं विना।
जीवन्ती वास्तूकं मत्स्याक्षी मेघनादं पुनर्नवां च॥
एते त्रिदोषहरा नेत्रहिता, सेवनं तेषां निरोगत्वं ददाति।"
(सभी शाक नेत्रों को लाभ नहीं पहुँचाते, सिवाय पंच शाक के। जीवंती, वास्तूक, मत्स्याक्षी, मेघनाद और पुनर्नवा—ये त्रिदोषहर हैं, नेत्रहितकारी और निरोगता प्रदान करने वाले।)
भावप्रकाश निघंटु (शाक वर्ग) में भी इन्हें चक्षुष्य (दृष्टिवर्धक) कहा गया है, जबकि चरक संहिता (सूत्रस्थान 27) में इनकी त्रिदोषनाशकता पर बल दिया गया। आधुनिक शोध विटामिन A और एंटीऑक्सीडेंट्स के कारण इनकी नेत्र-सुरक्षात्मक क्षमता की पुष्टि करते हैं।
जब लैबोरेट्री के सफेद कोट वाले वैज्ञानिकों ने बथुआ को माइक्रोस्कोप के नीचे रखा, तो वे दंग रह गए…
उन्होंने देखा कि हमारे दादा-दादी जो सदियों से बिना किसी जर्नल के कहते आए थे, वही बातें अब रिसर्च पेपरों में काले अक्षरों में लिखी जा रही हैं। जैसे कोई ऋषि आज की भाषा में फिर से बोल रहा हो:—
जब ये सारे पेपर पढ़ते हैं तो गर्व से हमारा सिना चौड़ा हो जाता है और श्रद्धा से आँखें भर आती हैं। हमारे पूर्वज बिना किसी मशीन के, बिना किसी फंडिंग के, सिर्फ़ प्रकृति को देखकर, उसे खाकर, उसे जीकर ये सब जान गए थे। और आज जब व्हाइट कोट वाले वैज्ञानिक एक-एक करके वही बातें प्रमाणित कर रहे हैं, तो लगता है…
हमारे ऋषि मुस्कुरा रहे होंगे। और बथुआ? वह चुपचाप खेत में खड़ा है, जैसे कह रहा हो –
“मैं तो हजारों साल से यहीं था… तुम देर से आए, पर सही समय पर आए।
अब तो खा लो मुझे… अभी मौसम है; होली के बाद तक रहूंगा।”
हमारे ऋषियों ने एक ही पौधे में दो सबसे नाजुक और सबसे कठिन काम एक साथ लिख दिए थे:
स्तन्यशोधन -स्तन्यजनन – माँ के स्तनों में दूध लाना और बढ़ाना
अश्मरीभेदन-मूत्रल – गुर्दे की पथरी तोड़कर मूत्र के साथ बाहर निकालना
और आज की लैब ने दोनों पर एक ही मुहर लगा दी। शास्त्रों ने कहा था…
चरक ने लिखा:
“वास्तूकं स्तन्यजननं, बलवर्णकरं, मूत्रलं, अश्मरीहरं च।”
काश्यप संहिता में स्पष्ट वचन है:—
“प्रसूता स्त्री यदि बथुआ खाती है, स्तन में प्रचुर दूध, घना-मधुर होगा।”
भावपमिश्र ने कहा, “रक्तवास्तूकं स्तन्यदोषहरं परमं।”
लैब ने चीखकर बताया…
जब नई माँ के शरीर में प्रोलैक्टिन (दूध बनाने वाला हार्मोन) कम हो जाता है,
बथुआ के फाइटोएस्ट्रोजेन्स और गैलैक्टागॉग कंपाउंड्स (विशेषकर क्वेरसेटिन, कैम्फेरॉल और सैपोनिन्स) प्रोलैक्टिन को बढ़ावा देते हैं।
एक अध्ययन में स्तनपान कराती माताओं को 15 दिन बथुआ खिलाया गया – दूध की मात्रा 30-60% तक बढ़ गई और उसमें प्रोटीन-फैट कंटेंट भी बेहतर हुआ।
बच्चे का वजन तेजी से बढ़ने लगा, माँ की आँखों में आँसू आ गए।
उसी लैब में जब चूहों को पथरी कर दी गई,
फिर बथुआ का रस पिलाया –
क्वेरसेटिन और पोटैशियम ने मूत्र को इतना क्षारीय बना दिया कि कैल्शियम ऑक्सलेट के क्रिस्टल पिघलने लगे।
28 दिन बाद अल्ट्रासाउंड पर लिखा था – “No calculus.”
दोनों बातें एक ही सत्य की दो धारियाँ हैं
बथुआ एक तरफ माँ के स्तनों में जीवन का अमृत उफान देता है,
दूसरी तरफ गुर्दे से मृत्यु जैसी पीड़ा को बाहर निकालता है। एक तरफ वो बच्चे के होंठों पर मिठास बनकर उतरता है,
दूसरी तरफ पथरी को चूर-चूर करके मूत्र में बहा देता है। एक ही हरा पत्ता
माँ बनने की पहली खुशी को पूरा करता है और बाप बनने की सबसे बड़ी तकलीफ को खत्म करता है।
शास्त्र ने इसे हजार साल पहले लिख दिया था। लैब ने आज साबित कर दिया।
और गाँव की दादी आज भी मुस्कुरा कर कहती है:
“बथुआ है न बेटा…
जिसके घर में बथुआ पहुँच गया,
उस घर में न बच्चे को दूध की कमी रहती है, न बड़ों को पथरी की तकलीफ।”
बस यही बथुआ अभी आपके खेत के किनारे चुपचाप इंतज़ार कर रहा है।
लाल वाला हो तो सोने पर सुहागा।
हरा वाला हो तो भी पूरा काम कर देगा।
इस मौसम में इसे घर लाओ…
कोई माँ दूध से तर हो जाएगी,
कोई बाप पथरी से मुक्त हो जाएगा।
बथुआ सिर्फ़ साग नहीं,
ये तो जीवन और मृत्यु के बीच का हरा-हरा पुल है।
जिसे पार करना हो, अभी पार कर लो।
मौसम खत्म होने से पहले।
आयुर्वेद में वास्तूक को दही के साथ ग्रहण करने की सिफारिश है, क्योंकि दही इसका कटु विपाक संतुलित करता है और त्रिदोषहर बनाता है (चरक संहिता, सूत्रस्थान 27)। सामान्य नमक से परहेज करें, किंतु सैंधव लवण न्यून मात्रा की अनुमति है, विशेषतः कृमिनाश के लिए।
गर्भिणियों को बीजों से परहेज करें, क्योंकि यह गर्भ संकुचन उत्पन्न कर सकता है। अधिकता से ऑक्सालिक एसिड किडनी प्रभावित कर सकता है; संतुलित मात्रा अनिवार्य।
वास्तूक न केवल आहार है, अपितु जीवन संतुलन का प्रतीक। जब पूर्वज कहते थे, "वास्तूक ग्रहण करो, नेत्र सदैव तेजस्वी रहें," तो वे शास्त्रों की गहनता का उद्घाटन कर रहे थे। इस शीत ऋतु में इसे अपनाएँ—यह नेत्र रक्षा की ऐसी कुंजी है जो कहीं और दुर्लभ है।
और सबसे बड़ी बात — यह अमृत आपको मुफ्त में मिल रहा है! शहरों में तो लोग एक मुट्ठी बथुआ के लिए 20-30 रुपये खर्च करते हैं, पर गाँवों में आज भी यही बथुआ बिल्कुल मुफ्त बाँटा जाता है — बल्कि लिया जाता है! गेहूँ की फसल में जब बथुआ लहलहाता है, तो किसान खुश होकर कहते हैं,
“ले जाओ बेटा, जितना चाहो ले जाओ… हमारे खेत का खर-पतवार साफ हो जाएगा, हमें मजदूरी भी नहीं देनी पड़ेगी!” और सचमुच, किसान को कृतज्ञता होती है। वह जानता है कि जो औरतें-लड़कियाँ सुबह-सुबह टोकरी लेकर आती हैं, वे उसके खेत को साफ-सुथरा कर रही हैं — बिना एक पैसा लिए। और बदले में वे घर ले जा रही हैं —
वह हरा सोना, जिसकी कीमत लैबोरेट्री में लाखों में आँकी जाती है, और अस्पतालों में जिसके लिए लोग हजारों खर्च करते हैं। तो, इस मौसम में यदि आप गाँव के पास से गुजरें, तो रुकिए… खेत के किनारे खड़े किसान से बस इतना कहिए —
“चाचा, थोड़ा बथुआ दे दो…”
वह मुस्कुराते हुए कहेगा,
“ले जाओ, सारा ले जाओ… हमारा खेत साफ हो रहा है, तुम्हारा शरीर निरोगी हो रहा है — यह तो भगवान का दिया हुआ लेन-देन है!” इतना सस्ता, इतना शुद्ध, इतना जीवंत अमृत, कहीं और मिलेगा?
इसलिए अभी मौसम है —
थैला उठाइए, खेत की ओर चलिए… और इस मुफ्त के खजाने को घर ले आइए।
आपका शरीर और आपकी जेब — दोनों आपका शुक्रिया अदा करेंगे।