Wednesday, December 17, 2025

बथुआ सागः एक त्रिदोष-नाशक औषधि





 बथुआ: आयुर्वेदिक औषधि जो हमारे खेतों में आसानी से उपलब्ध है।

🔸अनोखी अमृतघट
सर्दियों की ठंडी हवा में, जब खेतों की मिट्टी नम रहती है, वहाँ एक साधारण-सी झाड़ी उग आती है—बथुआ। वैज्ञानिक भाषा में चेनोपोडियम एल्बम कहलाने वाली यह जड़ी-बूटी, जो कभी खरपतवार समझी जाती थी, आज पोषण और चिकित्सा की दृष्टि से एक अनमोल रत्न साबित हो रही है। प्राचीन ग्रंथों में इसे 'वास्तूक' नाम से जाना जाता है, जो न केवल भोजन है बल्कि त्रिदोष-नाशक औषधि भी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि बथुआ के बीजों से बनी रोटी को हिमालयी इलाकों में 'सूरा' नामक किण्वित पेय बनाया जाता है, जो ऊर्जा का स्रोत बनता है? या फिर, इसके पत्तों का लेप जलने पर लगाने से त्वचा की कोशिकाएँ तेजी से पुनर्जीवित हो उठती हैं—एक ऐसा रहस्य जो आधुनिक एंटीऑक्सीडेंट क्रीमों से कहीं आगे है।
बथुआ की पौष्टिकता को सत्यापित करने पर पता चलता है कि यह वाकई विटामिनों और खनिजों का भंडार है। 100 ग्राम कच्चे बथुए में पाए जाते हैं:—
विटामिन A (580 माइक्रोग्राम, दृष्टि और त्वचा के लिए अनिवार्य),
विटामिन C (80 मिलीग्राम, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला),
विटामिन B1 (0.16 मिलीग्राम),
B2 (0.44 मिलीग्राम),
B3 (1.2 मिलीग्राम),
B5 (ट्रेस),
B6 (0.274 मिलीग्राम) और
B9 (फोलेट, 30 माइक्रोग्राम) प्रचुर हैं। खनिजों में कैल्शियम (309 मिलीग्राम, हड्डी मजबूती के लिए), लोहा (1.2 मिलीग्राम, रक्ताल्पता निवारक), मैग्नीशियम (34 मिलीग्राम), मैंगनीज (0.782 मिलीग्राम), फास्फोरस (72 मिलीग्राम), पोटैशियम (452 मिलीग्राम), सोडियम (43 मिलीग्राम) तथा जिंक (0.44 मिलीग्राम) प्रमुख हैं। कुल ऊर्जा 43 किलोकैलोरी है, जिसमें 7.3 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 4.2 ग्राम प्रोटीन और 4 ग्राम फाइबर सम्मिलित। ये आंकड़े इसे सुपरफूड की उपाधि देते हैं, विशेषकर विटामिन A की उच्चता नेत्र स्वास्थ्य के लिए वरदान सिद्ध हुई है। ये तथ्य आधुनिक पोषण विज्ञान से सिद्ध हैं, जो बथुए को सुपरफूड की श्रेणी में रखते हैं।
🔸आयुर्वेदीय गुण-कर्म:
आयुर्वेद में बथुआ को 'वास्तूक' कहकर विशेष स्थान दिया गया है और इसे शाकों में सर्वश्रेष्ठ (निकृष्ट :सरसो साग) बताया गया है। इसके गुण और कर्म इस प्रकार हैं:—
◼️रस (स्वाद): मधुर (मीठा) और कटु (तीखा)—यह संतुलन पाचन को उत्तेजित करता है बिना जलन पैदा किए।
◼️विपाक (पाचनोत्तर स्वाद): कटु—जो अग्नि को प्रज्वलित कर विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालता है।
◼️गुण (प्रकृति): लघु (हल्का, सुपाच्य), क्षार (क्षारीय, जो अम्लता को संतुलित करता है), स्निग्ध (स्नेहपूर्ण, जो वात को शांत करता है)।
◼️वीर्य (तासीर): उष्ण (गर्म)—सर्दियों में शरीर को ऊष्मा प्रदान करता है।
◼️दोष प्रभाव: त्रिदोषहर (वात, पित्त, कफ तीनों को संतुलित), यह रक्तशोधक (खून साफ करने वाला) और यकृत उतेजक (लीवर सक्रिय करने वाला) है।
◼️कर्म (क्रिया): दीपन (अग्नि प्रदीप्त करने वाला), पाचन (पाचक), रूचिकर (स्वाद बढ़ाने वाला), शुक्रबर्धक (वीर्यवर्धक), बलप्रद (शक्ति देने वाला), शोथहर (सूजन कम करने वाला), वेदनास्थामक (दर्द निवारक)।
ये गुण चरक संहिता और भावप्रकाश निघंटु जैसे ग्रंथों में वर्णित हैं। उदाहरणस्वरूप, बथुआ का सेवन रक्तपित्त (रक्तस्राव विकार) में लाभकारी है, क्योंकि यह पित्त की अतिरिक्त गर्मी को शांत करता है। इसके अलावा, यह कृमिनाशक (कीड़े नष्ट करने वाला) है—जिसके कारण आंतों के परजीवी आसानी से नष्ट हो जाते हैं। एक कम ज्ञात तथ्य: बथुआ का तेल (पत्तों से निकाला गया) एंटीफंगल गुणों से भरपूर है, जो त्वचा संक्रमणों में चमत्कारिक काम करता है।
आयुर्वेद के ग्रन्थों में वास्तूक की दो जातियाँ बताई गई हैं:
1️⃣श्वेत वास्तूक (सफेद बथुआ) → यही हमारा सामान्य हरा बथुआ है, पूरा पौधा हरा, स्वाद में हल्की कड़वाहट, ऑक्सालिक एसिड थोड़ा अधिक। साग के लिए उत्तम।
2️⃣रक्त वास्तूक (लाल बथुआ)
डंठल और पत्तियों के पीछे बैंगनी-लाल रंग, स्वाद मीठा, ऑक्सालिक एसिड बहुत कम।
रस के लिए और पथरी-गठिया वालों के लिए सबसे श्रेष्ठ।
गाँव में आज भी कहते हैं:
“हरा खाओ साग बनाओ, लाल खाओ रस बनाओ।” बस इतना याद रखो – लाल वाला मिल जाए तो पहले उसे चुन लो, खासकर रस के लिए। हरा वाला साग-पराठे में डालो, मजा आ आएगा। दोनों अच्छे, बस प्रयोग अलग। कुछ लोग लाल को रोगग्रस्त बथुआ समझकर फेंक देते हैं, पर उनकी गलत धारणा है।
आयुर्वेद में सामान्य शाकों को नेत्रों के लिए हानिकारक माना गया है, क्योंकि वे कफ वृद्धि कर दृष्टि को मंद करते हैं। किंतु पंच शाक—जीवंती (लेप्टाडेनिया रेटिकुलाटा), वास्तूक (बथुआ), मत्स्याक्षी (अल्टरनेंथेरा सैसिलिस), मेघनाद (अमरैंथस स्पाइनोसस, चौलाई का एक रूप) तथा पुनर्नवा (बोएरहेविया डिफ्यूसा)—अपवाद हैं। ये सभी त्रिदोषहर हैं और नेत्रज्योति वर्धक।
योगरत्नाकर (नेत्र रोग अध्याय) में श्लोक है:
"शाकानि सर्वाणि हि चक्षुष्याणि न भवन्ति, शाकपञ्चकं विना।
जीवन्ती वास्तूकं मत्स्याक्षी मेघनादं पुनर्नवां च॥
एते त्रिदोषहरा नेत्रहिता, सेवनं तेषां निरोगत्वं ददाति।"
(सभी शाक नेत्रों को लाभ नहीं पहुँचाते, सिवाय पंच शाक के। जीवंती, वास्तूक, मत्स्याक्षी, मेघनाद और पुनर्नवा—ये त्रिदोषहर हैं, नेत्रहितकारी और निरोगता प्रदान करने वाले।)
भावप्रकाश निघंटु (शाक वर्ग) में भी इन्हें चक्षुष्य (दृष्टिवर्धक) कहा गया है, जबकि चरक संहिता (सूत्रस्थान 27) में इनकी त्रिदोषनाशकता पर बल दिया गया। आधुनिक शोध विटामिन A और एंटीऑक्सीडेंट्स के कारण इनकी नेत्र-सुरक्षात्मक क्षमता की पुष्टि करते हैं।
🔸ऋषियों और वैज्ञानिकों
🔸का एक ही स्वर
जब लैबोरेट्री के सफेद कोट वाले वैज्ञानिकों ने बथुआ को माइक्रोस्कोप के नीचे रखा, तो वे दंग रह गए…
उन्होंने देखा कि हमारे दादा-दादी जो सदियों से बिना किसी जर्नल के कहते आए थे, वही बातें अब रिसर्च पेपरों में काले अक्षरों में लिखी जा रही हैं। जैसे कोई ऋषि आज की भाषा में फिर से बोल रहा हो:—
◼️आधुनिक शोध चीख-चीख कर बता रहे हैं कि बथुआ के फ्लेवोनॉइड्स और पॉलीफिनॉल्स कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने से रोकते हैं। स्तन कैंसर और कोलन कैंसर की कोशिकाएँ जब इसके अर्क से मिलती हैं, तो वे आत्महत्या करने लगती हैं (एपोप्टोसिस)। ऋषि कहते थे “रक्तशोधन”, साइंस कहता है “एंटी-कैंसर एक्टिविटी” – बात एक ही है।
◼️जब लीवर को शराब या दवाओं से जहर दिया जाता है, तो चूहों के प्रयोगों में बथुआ का अर्क लीवर को नई जिंदगी देता है। जो कोशिकाएँ मरने की कगार पर होती हैं, वे फिर से हरी हो उठती हैं। आज का हेपेटो-प्रोटेक्टिव रिसर्च और पुराना “यकृत बलकारक” एक ही सत्य को दो भाषाओं में बोल रहे हैं।
◼️डायबिटीज के मरीजों के खून में जब बथुआ का रस डाला गया, तो शुगर का स्तर नीचे गिरने लगा। इंसुलिन की संवेदनशीलता बढ़ गई। जैसे कोई कह रहा हो – “मधुमेह को जड़ से शांत करने वाला पुराना वास्तूक आज भी जीवित है।”
◼️त्वचा पर फंगल इन्फेक्शन, मुँह में छाले, मसूड़ों से खून – जहाँ-जहाँ कीटाणु पनपते हैं, वहाँ बथुआ का अर्क पहुँचते ही उन्हें मार गिराता है। एंटी-बैक्टीरियल, एंटी-फंगल… नाम जो भी दो, परिणाम वही – हमारे गाँव की दादी का लेप आज भी लैब में जीत रहा है।
◼️क्षेत्रीय लोकोक्ति: उत्तर भारत की एक प्राचीन उक्ति—"बथुआ खाओ, बुढ़ापे में भी नेत्रज्योति जवान"—इसके दृष्टिवर्धक और कब्ज-निवारक गुणों को प्रतिबिंबित करती है। हिमालयी लोक में इसे "शीतकालीन विषनाशक" कहा जाता है, जो सर्दी के विषाक्त पदार्थों को शुद्ध करता है।
जब ये सारे पेपर पढ़ते हैं तो गर्व से हमारा सिना चौड़ा हो जाता है और श्रद्धा से आँखें भर आती हैं। हमारे पूर्वज बिना किसी मशीन के, बिना किसी फंडिंग के, सिर्फ़ प्रकृति को देखकर, उसे खाकर, उसे जीकर ये सब जान गए थे। और आज जब व्हाइट कोट वाले वैज्ञानिक एक-एक करके वही बातें प्रमाणित कर रहे हैं, तो लगता है…
हमारे ऋषि मुस्कुरा रहे होंगे। और बथुआ? वह चुपचाप खेत में खड़ा है, जैसे कह रहा हो –
“मैं तो हजारों साल से यहीं था… तुम देर से आए, पर सही समय पर आए।
अब तो खा लो मुझे… अभी मौसम है; होली के बाद तक रहूंगा।”
🔸स्तन्यशोधन, स्तन्यजनन, 🔸अश्मरीभेदन और मूत्रल गुण
हमारे ऋषियों ने एक ही पौधे में दो सबसे नाजुक और सबसे कठिन काम एक साथ लिख दिए थे:
स्तन्यशोधन -स्तन्यजनन – माँ के स्तनों में दूध लाना और बढ़ाना
अश्मरीभेदन-मूत्रल – गुर्दे की पथरी तोड़कर मूत्र के साथ बाहर निकालना
और आज की लैब ने दोनों पर एक ही मुहर लगा दी। शास्त्रों ने कहा था…
चरक ने लिखा:
“वास्तूकं स्तन्यजननं, बलवर्णकरं, मूत्रलं, अश्मरीहरं च।”
काश्यप संहिता में स्पष्ट वचन है:—
“प्रसूता स्त्री यदि बथुआ खाती है, स्तन में प्रचुर दूध, घना-मधुर होगा।”
भावपमिश्र ने कहा, “रक्तवास्तूकं स्तन्यदोषहरं परमं।”
लैब ने चीखकर बताया…
जब नई माँ के शरीर में प्रोलैक्टिन (दूध बनाने वाला हार्मोन) कम हो जाता है,
बथुआ के फाइटोएस्ट्रोजेन्स और गैलैक्टागॉग कंपाउंड्स (विशेषकर क्वेरसेटिन, कैम्फेरॉल और सैपोनिन्स) प्रोलैक्टिन को बढ़ावा देते हैं।
एक अध्ययन में स्तनपान कराती माताओं को 15 दिन बथुआ खिलाया गया – दूध की मात्रा 30-60% तक बढ़ गई और उसमें प्रोटीन-फैट कंटेंट भी बेहतर हुआ।
बच्चे का वजन तेजी से बढ़ने लगा, माँ की आँखों में आँसू आ गए।
उसी लैब में जब चूहों को पथरी कर दी गई,
फिर बथुआ का रस पिलाया –
क्वेरसेटिन और पोटैशियम ने मूत्र को इतना क्षारीय बना दिया कि कैल्शियम ऑक्सलेट के क्रिस्टल पिघलने लगे।
28 दिन बाद अल्ट्रासाउंड पर लिखा था – “No calculus.”
दोनों बातें एक ही सत्य की दो धारियाँ हैं
बथुआ एक तरफ माँ के स्तनों में जीवन का अमृत उफान देता है,
दूसरी तरफ गुर्दे से मृत्यु जैसी पीड़ा को बाहर निकालता है। एक तरफ वो बच्चे के होंठों पर मिठास बनकर उतरता है,
दूसरी तरफ पथरी को चूर-चूर करके मूत्र में बहा देता है। एक ही हरा पत्ता
माँ बनने की पहली खुशी को पूरा करता है और बाप बनने की सबसे बड़ी तकलीफ को खत्म करता है।
शास्त्र ने इसे हजार साल पहले लिख दिया था। लैब ने आज साबित कर दिया।
और गाँव की दादी आज भी मुस्कुरा कर कहती है:
“बथुआ है न बेटा…
जिसके घर में बथुआ पहुँच गया,
उस घर में न बच्चे को दूध की कमी रहती है, न बड़ों को पथरी की तकलीफ।”
बस यही बथुआ अभी आपके खेत के किनारे चुपचाप इंतज़ार कर रहा है।
लाल वाला हो तो सोने पर सुहागा।
हरा वाला हो तो भी पूरा काम कर देगा।
इस मौसम में इसे घर लाओ…
कोई माँ दूध से तर हो जाएगी,
कोई बाप पथरी से मुक्त हो जाएगा।
बथुआ सिर्फ़ साग नहीं,
ये तो जीवन और मृत्यु के बीच का हरा-हरा पुल है।
जिसे पार करना हो, अभी पार कर लो।
मौसम खत्म होने से पहले।
🔸शास्त्रीय सेवन पद्धतियाँ:
🔸परंपरा की गहराई
आयुर्वेद में वास्तूक को दही के साथ ग्रहण करने की सिफारिश है, क्योंकि दही इसका कटु विपाक संतुलित करता है और त्रिदोषहर बनाता है (चरक संहिता, सूत्रस्थान 27)। सामान्य नमक से परहेज करें, किंतु सैंधव लवण न्यून मात्रा की अनुमति है, विशेषतः कृमिनाश के लिए।
◼️रायता: उबले वास्तूक को दही में संयोजित कर, सैंधव लवण डालें—नेत्र स्वास्थ्य के लिए श्रेष्ठ।
◼️काढ़ा: आधा किलो वास्तूक को तीन गिलास जल में उबालें, छानकर नींबू-जीरा मिलाएँ—मूत्र विकारों में लाभदायक।
◼️रस चिकित्सा: कच्चे वास्तूक का रस मधु मिलाकर पथरी भंजन हेतु; मासिक अनियमितता में बीज काढ़ा।
◼️सब्जी और पराठा के रुप में भी स्वादिष्ट के साथ लाभदायक
गर्भिणियों को बीजों से परहेज करें, क्योंकि यह गर्भ संकुचन उत्पन्न कर सकता है। अधिकता से ऑक्सालिक एसिड किडनी प्रभावित कर सकता है; संतुलित मात्रा अनिवार्य।
वास्तूक न केवल आहार है, अपितु जीवन संतुलन का प्रतीक। जब पूर्वज कहते थे, "वास्तूक ग्रहण करो, नेत्र सदैव तेजस्वी रहें," तो वे शास्त्रों की गहनता का उद्घाटन कर रहे थे। इस शीत ऋतु में इसे अपनाएँ—यह नेत्र रक्षा की ऐसी कुंजी है जो कहीं और दुर्लभ है।
और सबसे बड़ी बात — यह अमृत आपको मुफ्त में मिल रहा है! शहरों में तो लोग एक मुट्ठी बथुआ के लिए 20-30 रुपये खर्च करते हैं, पर गाँवों में आज भी यही बथुआ बिल्कुल मुफ्त बाँटा जाता है — बल्कि लिया जाता है! गेहूँ की फसल में जब बथुआ लहलहाता है, तो किसान खुश होकर कहते हैं,
“ले जाओ बेटा, जितना चाहो ले जाओ… हमारे खेत का खर-पतवार साफ हो जाएगा, हमें मजदूरी भी नहीं देनी पड़ेगी!” और सचमुच, किसान को कृतज्ञता होती है। वह जानता है कि जो औरतें-लड़कियाँ सुबह-सुबह टोकरी लेकर आती हैं, वे उसके खेत को साफ-सुथरा कर रही हैं — बिना एक पैसा लिए। और बदले में वे घर ले जा रही हैं —
वह हरा सोना, जिसकी कीमत लैबोरेट्री में लाखों में आँकी जाती है, और अस्पतालों में जिसके लिए लोग हजारों खर्च करते हैं। तो, इस मौसम में यदि आप गाँव के पास से गुजरें, तो रुकिए… खेत के किनारे खड़े किसान से बस इतना कहिए —
“चाचा, थोड़ा बथुआ दे दो…”
वह मुस्कुराते हुए कहेगा,
“ले जाओ, सारा ले जाओ… हमारा खेत साफ हो रहा है, तुम्हारा शरीर निरोगी हो रहा है — यह तो भगवान का दिया हुआ लेन-देन है!” इतना सस्ता, इतना शुद्ध, इतना जीवंत अमृत, कहीं और मिलेगा?
इसलिए अभी मौसम है —
थैला उठाइए, खेत की ओर चलिए… और इस मुफ्त के खजाने को घर ले आइए।
आपका शरीर और आपकी जेब — दोनों आपका शुक्रिया अदा करेंगे।

Saturday, May 17, 2025

राम-लक्ष्मण की एक रोचक कहानी संकलन- Dev Kumar Pukhraj

 राम-लक्ष्मण की एक रोचक कहानी

====================


भगवान श्री राम लक्ष्मण और सीता जी पिता दशरथ जी की आज्ञा से वनवास जाने लगे। रास्ते में सभी तीर्थ गंगा, यमुना, गोमती नदियों में पितृ तर्पण कर वन में कंद मूल, फल फूल खाते हुए वन में अपना समय व्यतीत करने लगे। वैशाख का महीना आया–एकम के दिन लक्ष्मण जी ने राम जी की आज्ञा से फल-फूल लाकर माँ सीता को दिए। माँ सीता ने चार पत्तल परोसी तब लक्ष्मण ने पूछा–‘भाभी माँ हम तीन हैं फिर चार में क्यों परोसा ?’ माँ सीता बोली–‘एक पत्तल गों माता की हैं।’

         

जब राम जी, लक्ष्मण जी, और गोमाता को पत्तल परोस दी तब राम जी ने पूछा–‘सीता जी आप ने खाना शुरू क्यों नहीं किया ?’ सीता माँ बोली–‘मेरे तो राम कथा सुनने का नियम हैं राम कथा सुनने के बाद ही में फल ग्रहण करूँगी।’ 

         

रामजी बोले–‘मुझे कथा सुना दो’, लक्ष्मण जी बोले–‘मुझे सुना दो’ तब माँ सीता बोली–‘औरत की बात औरत ही सुने–आप मेरे आप मेरे पति हो, आप मेरे देवर हो आपसे कैसे कहूँ ?’ 

         

लक्ष्मणजी ने सोचा इस जंगल में कौन औरत मिलेगी ? फिर लक्ष्मणजी ने अपनी माया से एक नगरी का निर्माण किया। वह नगरी में सब सुख सुविधाओं से युक्त थी। उस नगरी में सब चीजे सोने की थीं इसलिये नगरी का नाम सोन नगरी रखा। 

         

सभी नगर निवासियों को घमण्ड हो गया उस नगरी में कोई गरीब नहीं था। जब सीता जी कुँऐ पर पानी लेने गई और पनिहारिनों से राम-राम किया तो कोई नहीं बोली। थोड़ी देर में एक छोटी कन्या आई। सीता जी उससे राम-राम बोली और कहा कि बाई राम कथा सुनेगी क्या ?’ वह बोली–‘मेरे तो घर पर काम हैं।’ सीता जी ने कहा–‘मेरे पति राम और देवर लक्ष्मण भूखे हैं।’ लडकी बोली–‘मेरी माँ मेरा इन्तजार कर रही हैं।’

          

वह लडकी वहाँ से जानी लगी तब माँ सीता के क्रोध से सारी नगरी साधारण सी हो गई। जब लडकी घर गई तो माँ बोली–‘बाई ये क्या हुआ ?’ तब लडकी बोली–‘मेरे को तो पता नहीं हैं। वहाँ पर एक साध्वी बैठी थी मुझे राम कथा सुनने के लिए बोली पर मैं तो कथा नहीं सुनी। यदि उसने कुछ किया हो तो पता नहीं।’

          

तब उसकी माँ ने उसको वापस जाकर कथा सुनने को कहा। लडकी ने वापस जाकर कथा सुनने से मना कर दिया तब उसकी बहु बोली–‘आपकी आज्ञा हो तो मैं कहानी सुन कर आती हूँ।’

           

जब बहु कुँऐ पर गई तो पानी भरे और खाली करे। तब सीताजी ने कहा–‘आपके घर पर कुछ काम नहीं हैं क्या ?’ वह बोली माताजी मैं तो सारा काम करके आई हूँ।’ माँ सीता बोली–‘तू मुझे माँ कहकर बुलाई यदि तुझे समय हो तो क्या मेरी राम कहानी सुन लेगी ?’ वह बोली–‘माताजी कहानी सुनाओ मैं प्रेम से कहानी सुनूँगी।’

         

सीताजी ने कहा–‘हे बाई ! तूने मेरी मृत्युलोक में मदद करी भगवान तेरी स्वर्ग लोक में रक्षा करेंगे।’ 

       

राम कथा पूर्ण हुई तो सीता जी ने कहा–‘हे बाई ! तूने मेरी राम कथा सुनी, मेरी सहायता की राम जी लक्ष्मण को  जिमाया हैं भगवान तेरी भी रक्षा करेंगे। तुझे स्वर्ग का सुख मिलेगा।’ सीता माता ने उपहार स्वरूप अपने गले का हार दे दिया। जब वह घर गयी तो उसके मटके सब सोने के हो गये। सासु जी ने कहा–‘ये सब तू कहाँ से लाई ?’ 

           

बहु बोली–‘मैंने माँ सीता से राम कथा सुनी ये इसी का फल हैं।’ सासुजी ने कहा–‘प्रतिदिन राम कथा सुन आना।’


बहु को रामकथा सुनते बहुत दिन हो गये तब उसने माँ सीता से पूछा–‘इसका उद्यापन विधि बतलाओ।’ तब सीता जी ने कहा–‘सात लड्डू लाना, एक नारियल लाना उसके सात भाग करना, एक भाग मन्दिर में चढ़ाना जिससे मन्दिर बनवाने जितना फल होता है। एक भाग सरोवर के किनारे गाड़ देना जिससे सरोवर खुदवाने जितना फल होता है। एक भाग भगवद्गीता पर चढ़ाना जिससे भगवद्गीता पाठ करवाने जितना फल होगा। एक भाग तुलसी माता पर चढ़ाना जिससे तुलसी विवाह जितना फल होगा। एक भाग कुँवारी कन्या को देना जिससे कन्या विवाह जितना फल होगा। एक भाग सूरज भगवान को चढ़ाना जिससे तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को भोग लगाने जितना फल होगा।’

          

बहु ने विधि पूर्वक उद्यापन कर दिया। माता सीता के पास आकर बोली–‘माता मैंने तो विधिपूर्वक उद्यापन कर दिया।’ सीता जी ने कहा–‘अब सात दिन बाद वैकुण्ठ से विमान आएगा।’

         

सात दिन पूरे हुए विमान आया तो बहु ने कहा–‘सासुजी स्वर्ग से विमान आया है।’ सासुजी ने कहा–‘बहु तेरे ससुरजी को और मेरे को भी ले चल, तेरे माता पिता को ले चल सारे कुटुम्ब परिवार को ले चल, अड़ोसी-पड़ोसियों को ले चल।’ बहु ने सबको बिठा लिया पर विमान खाली था।

         

थोड़ी देर में उसकी नन्द आई और देखते-ही-देखते विमान भर गया। तब बहु ने कहा–‘माँ सीता नन्द बाईसा को भी बिठा लो।’ माँ सीता ने कहा–‘इसने कभी कोई धर्म पुण्य नहीं किया।’ बहु ने कहा–‘बाईसा आप पहले वैशाख मास में राम लक्ष्मण की कथा सुनना उसके बाद आप के लिए वैकुण्ठ से विमान आएगा।’

         

गाँव के सारे लोग एकत्र हो गये और पूछने लगे–‘बाई तूने ऐसा कौन-सा धर्म पुण्य किया, हमें भी बताओं ?’ बहु ने कहा–‘मैंने तो माता सीता से प्रतिदिन राम कथा सुनी और नियम से उद्यापन किया।’

         

तब समस्त ग्रामीण राम कथा सुनने की जिद्द करने लगे। तब बाई राम कथा कहने लगी और सब नर-नारी सुनने लगे, राम कथा सम्पूर्ण होते ही समस्त नगरी सोने की हो गई। बाई ने कहा–‘जो कोई राम कथा सुनेगा उसको मेरे समान ही फल मिलेगा।’ 

          

सब राम लक्ष्मण जी की जय जयकार करने लगे और विमान स्वर्ग में चला गया। सात स्वर्ग के दरवाजे खुल गये। पहले द्वार पर नाग देवता, समस्त देवी देवता पुष्प वर्षा करने लगे देवताओं ने पूछा–‘तूने क्या पुण्य किया ?’ बहु ने कहा–‘मैंने तो राम लक्ष्मण जानकी की कहानी सुनी।’ समस्त देवताओं ने कहा–‘वर मांग।’ तब वह बोली–‘मेरे पास सब सिद्धियाँ हैं। मुझे यह वर दो की जो भी श्रद्धा एवं भक्ति से राम कथा, राम लक्ष्मण जानकी की कहानी सुनेगा उसको मेरे समान ही फल मिले।’

          

सभी देवताओं ने पुष्प वर्षा करते हुए तथास्तु कहा। चारों और राम-राम की जय जयकार होने लगी।

Tuesday, March 4, 2025

श्रीराम जी कौन हैं, उनका अवतार किस लिए हुआ

 लक्ष्मण जी ने निषादराज को बताया कि - श्रीराम जी कौन हैं, और उनका अवतार किस लिए हुआ है। 
 👨आचार्य ब्रजपाल शुक्ल वृंदावनधाम

*******

 रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड के 93 वें दोहे में,लक्ष्मण जी ने निषादराज को समझाते हुए कहा कि - 

 भगत भूमि भूसुर सुरभि,सुर हित लागि कृपाल। 

 करत चरित धरि मनुज तनु, 

 सुनत मिटहिं जगजाल।। 

 सन्दर्भ 

***



कैकेयी याचित वनवास को स्वीकार करके, अयोध्या से निकलकर,श्रीराम जी, लक्ष्मण जी तथा भगवती जगदम्बा सीता, तीनों ही निषादराज गुह के अतिथि बने।

रात्रिकाल में, दशरथनन्दन श्रीराम जी को,तृणपर्णाच्छादित भूमि पर शयन करते हुए, देखकर, निषादराज गुह ने,कैकेयी के प्रति कुछ वाक्य कहकर लक्ष्मण की ओर देखते हुए,अतिदुख व्यक्त किया,तो लक्ष्मण जी ने कहा कि -

हे निषादराज गुह! श्रीराम जी की वर्तमान की परिस्थिति को देखकर,अतिदुखित मत होइए। ये मनुष्य नहीं हैं,जो अपने कर्मों के फलस्वरूप दुखों को भोगते हैं।

महाराज दशरथ जी के यहां,इनका प्रादुर्भाव मात्र हुआ है। किन्तु,ये श्रीराम जी, महाराज पिता दशरथ की सेवामात्र के लिए प्रादुर्भूत नहीं हुए हैं।

संसार में, जीवों का जन्म तो, पूर्वजन्मकृत कर्म के फल को भोगते हुए पूर्ण होता है। मनुष्य तो,वर्तमान के जीवन में भी भोगमय वृत्ति से जीवन व्यतीत करते हैं। 

 मनुष्य का जीवन तो, एक सामान्य जीव के समान ही भोग और भोजन में ही व्यतीत होता है। 

श्रीराम जी के प्रादुर्भाव के पांच प्रयोजन हैं।

ये,कर्म के वशीभूत होकर, दशरथनन्दन नहीं हैं।

ये तो सभी जीवों के कर्मफलदाता ही हैं। आपके यहां भूमिशयन करते हुए,इनको किसी भी प्रकार का दुख भी नहीं है। ये परमसुखमय हैं। परमानन्दमय हैं।

अब दोहे के अनुसार,श्रीराम जी के अवतार के पांच प्रयोजन श्रवण करिए!

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल। 

******

(1) भगत (2)भूमि (3) भूसुर अर्थात ब्राह्मण (4) सुरभि अर्थात गौ (5) सुर।

इन पांचों की रक्षा के लिए ही, कृपालु दयालु, भगवान ने अवतार लिया है।

अब इन पांचों प्रयोजनों पर थोड़ा विचार कर लीजिए।

 भगत 

**

इस जगत के किसी भी स्थान में, भगवान की चर्चा अर्चना हो रही है तो,उसके आधार तो, एकमात्र, भगवान के भक्त ही हैं।

भगवान के भक्तगण, प्रत्येक प्रान्त में जन्म प्राप्त करके,उस प्रान्तीय भाषा में, भगवान के चरित्रों का गुणगान करते हैं।

यदि भक्त हैं तो ही संसार में, भगवान की चर्चा है।

संसार के स्त्री पुरुष, वैराग्य और भक्ति ज्ञान सम्पन्न भक्तों को भोजन भी नहीं देते हैं। अपमानित करते हैं। 

इन अज्ञानी स्वार्थी स्त्री पुरुषों को, भगवान के भक्तों के स्वरूप का ज्ञान भी नहीं होता है।

अल्प वस्त्रों में देखकर,दरिद्र समझते हैं। असहाय अनाथ समझते हैं।

शारीरिक दुर्बलता को देखकर,निर्बल समझते हैं। पारिवारिक स्त्री पुरुषों से दूर समझकर अनाथ समझते हैं। किसी के द्वारा किए गए अपमान का प्रतीकार न करने के कारण, ही, भगवान के भक्तों को विक्षिप्त समझते हैं।

इन अभागी,निर्भागी स्त्री पुरुषों को, भगवान के भक्तों का लाक्षणिक ज्ञान नहीं होता है तो,ये लोग भक्त को अतिदुख देते हैं।

कितने तो ऐसे दुष्ट स्वभाव के स्त्री पुरुष होते हैं कि - भगवान के भक्तों को मृत्यु ही दे देते हैं।

भगवान के चरित्रों का गुणगान करके भगवान की स्थापना करनेवाले भक्त और भक्ति की रक्षा करने के लिए भगवान अवतीर्ण होकर, दुष्टों का नाश करते हैं।

भक्ति और भक्त की रक्षा के लिए ही भगवान, श्रीराम जी अवतीर्ण हुए हैं। यही उनके प्रादुर्भाव का प्रथम प्रयोजन है। वे तो जीवों का दुख दूर करने के लिए आए हैं। इसीलिए उनने वनवास को निमित्त बनाया है।

 भूमि -

 भूमि अर्थात पृथिवी की रक्षा से ही सभी की रक्षा है।

राक्षस गणों ने सम्पूर्ण पृथिवी को स्वयं के अधिकृत कर लिया है। पृथिवी के अन्न,जल,वायु,प्रकाश आदि को अधिकृत करके, मात्र अपना ही भरण पोषण करते हैं। शेष जीवों का संहार करके अपने आप की प्रतिष्ठा करते हैं।

पृथिवी की रक्षा से ही सम्पूर्ण विश्व की रक्षा होती है। 

इसीलिए,भूमि के संरक्षण के लिए भी, भगवान अवतीर्ण हुए हैं। ये उनके प्रादुर्भाव का द्वितीय प्रयोजन है।

 भूसुर-

 भू अर्थात पृथिवी। सुर अर्थात देवता। पृथिवी के देवता को भूसुर शब्द से कहा जाता है।

शास्त्र ही भगवान की आज्ञा है। सत्कर्म दुष्कर्म,पाप पुण्य,आदि के विधायक शास्त्र ही भगवान की आज्ञा हैं।

भगवान की आज्ञारूप शास्त्रों के रक्षक, एकमात्र भूसुर अर्थात ब्राह्मण ही हैं। 

ब्राह्मणों के नाश से,वेद पुराण धर्मशास्त्र आदि सभी प्रकार की दिव्य विद्याओं का विनाश हो जाता है।

शास्त्रधारक ब्राह्मणों को,नष्ट करना, भोगियों स्त्री पुरुषों का प्रथम उद्देश्य होता है।

धनवान, बलवान राक्षसगण, सर्वप्रथम धर्म के नाश में ही अपने बल बुद्धि का सम्पूर्ण उपयोग करते हैं।

ब्राह्मण के नाश से ही शास्त्रों का नाश होता है। शास्त्रों के नाश से, धर्म का समूल नाश होता है।

भगवान का संविधान ही तो शास्त्र है। शास्त्रों की रक्षा करने के लिए, ब्राह्मणों की रक्षा आवश्यक है। इसीलिए भगवान, ब्राह्मणों की रक्षा के लिए अवतीर्ण हुए हैं। 

श्रीराम जी का अवतार तो, धर्म की रक्षा के लिए हुआ है। ये उनके अवतार का तृतीय प्रयोजन है।

 सुरभि अर्थात गौ -

जितने भी दुग्धदाता जीव हैं,उन सभी में,सुरभि अर्थात गौ एकमात्र ऐसी दुग्धदात्री है,जिसको भगवान ने देवताओं के योग्य कहा है। 

 दुग्ध,घृत, दधि, गोमय तथा गोमूत्र,ये पांचों ही देवताओं की आराधना के साधन हैं। 

इन राक्षसों दैत्यों की कुदृष्टि भी गौ के नाश में ही पड़ती है।

 देवताओं को हुतभुक् शब्द से कहा जाता है। हवनीय द्रव्यों का हवन होता है,वही तो देवताओं का भोजन है।‌ 

गौ की रक्षा से ही देवताओं की रक्षा होती है। देवताओं के अधीन सृष्टि होती है। देवताओं के साधन की रक्षा करने के लिए भी, भगवान श्रीराम जी का अवतार हुआ है। ये उनके प्रादुर्भाव का चतुर्थ प्रयोजन है।

  सुर -

 सुर अर्थात देवता। 

यज्ञ से, पर्जन्य अर्थात मेघों की सृष्टि होती है। मेघों की वर्षा से अन्न होता है, और अन्न से जीवों की उत्पत्ति होती है।

देवताओं के विनष्ट होते ही सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश हो जाएगा। इसीलिए, देवताओं की रक्षा के लिए भी भगवान श्रीराम जी का अवतार हुआ है।

श्रीराम जी के अवतीर्ण होने के ये पांच प्रयोजन हैं।

मानव समाज,इन पांचों का विनाशक होता है,रक्षक नहीं होता है। सृष्टिकर्ता ही, सृष्टि की रक्षा करते हैं। 

निषादराज गुह ने कहा कि - किन्तु,ऐसी अवस्था में देखकर, हमें अतिदुख हो रहा है। भगवान को,इन पांचों की रक्षा करना थी तो,इतना दुख भोगकर रक्षा क्यों करना है!

लक्ष्मण जी ने कहा कि -

 करत चरित धरि मनुज तनु,। 

हे निषादराज! श्रीराम जी, मनुष्य नहीं हैं। इनने तो धरि मनुज तनु, मनुज अर्थात मनुष्य का तन,शरीर धारण किया है। रूपधारण करनेवाला,वह नहीं होता है,जिसका रूप धारण किया है।

जैसे - कोई नाट्यधर, अभिनेता,किसी का रूप धारण करके उसके चरित्र का अभिनय करता है, किन्तु,वह अभिनेता वह नहीं होता है,जिसका अभिनय करता है।

इसी प्रकार से भगवान ने, मनुष्य का स्वरूप धारण किया है, किन्तु वे मनुष्य नहीं हैं। मनुष्य जैसा,अभिनय कर रहे हैं।

भगवान ने मनुष्य जैसा चरित किया है तो, ऐसे दुखों को सहन करने से क्या लाभ होगा!

 सुनत मिटहिं जगजाल। 

श्रीराम जी के इन विविध प्रकार की मानुषी लीलाओं को सुनेंगे, पढ़ेंगे, सुनाएंगे तो उनको भगवान और भगवान की भगवत्ता का ज्ञान होगा तो,जगतजाल ही नष्ट हो जाएगा।     मनुष्यों को मनुष्य जैसे दुख,सुख, युद्ध, धर्म,त्याग आदि के चरित्र समझ में आते हैं। इसीलिए भगवान ऐसे चरित्र कर रहे हैं। 

 वास्तव में, भगवान श्री राम जी को किसी भी प्रकार का दुख नहीं है। वे तो परमानन्द परेश हैं। 

 इसका तात्पर्य यह है कि - श्रीराम जी के चरित्र,जिन पुराणों में वर्णित हैं,तथा वाल्मीकीय रामायण में वर्णित हैं,तथा रामचरितमानस आदि प्राकृत भाषा में वर्णित हैं,उन चरित्रों को गुरु से बिना पढ़े,न तो श्रीराम ही समझ में आएंगे, और न ही स्वयं के पढ़ने से भ्रम का नाश होगा। ग्रंथों का, मात्र पाठ करने से ज्ञान नहीं होता है। यथार्थ अर्थ जानिए, और स्वयं को भ्रममुक्त करके भक्तिमान बनिए। 

 भगवान का यही यथार्थ स्वरूप है।