जगदगुरु स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी महाराज

Thursday, March 21, 2024

तीर्थ में जाकर घर को याद ना करें- रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज

 


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रामायण मनका १०८ (भाग १)..

रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम॥
जय रघुनन्दन जय घनशाम। पतित पावन सीताराम॥
भीड़ पड़ी जब भक्त पुकारे। दूर करो प्रभु दु:ख हमारे॥
दशरथ के घर जन्में राम। पतित पावन सीताराम॥१॥
विश्वामित्र मुनीश्वर आए। दशरथ भूप से वचन सुनाये।
संग में भेजे लक्ष्मण राम। पतित पावन सीताराम॥२॥
वन में जाय ताड़का मारी। चरण छुआय अहिल्या तारी॥
ऋषियों के दु:ख हरते राम। पतित पावन सीताराम॥३॥
जनकपुरी रघुनन्दन आए। नगर निवासी दर्शन पाए॥
सीता के मन भाये राम। पतित पावन सीताराम॥४॥
रघुनन्दन ने धनुष चढाया। सब राजों का मान घटाया॥
सीता ने वर पाये राम। पतित पावन सीताराम॥५॥
परशुराम क्रोधित हो आए। दुष्ट भूप मन में हरषाये॥
जनकराय ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥६॥
बोले लखन सुनो मुनि ज्ञानी। संत नहीं होते अभिमानी॥
मीठी वाणी बोले राम। पतित पावन सीताराम॥७॥
लक्ष्मण वचन ध्यान मत दीजो। जो कुछ दण्ड दास को दीजो॥
धनुष तुडइय्या मैं हूँ राम। पतित पावन सीताराम॥८॥
लेकर के यह धनुष चढाओ। अपनी शक्ति मुझे दिखाओ॥
छूवत चाप चढाये राम। पतित पावन सीताराम॥९॥
हुई उर्मिला लखन की नारी। श्रुतिकीर्ति रिपुसूदन प्यारी॥
हुई मांडवी भरत के वाम। पतित पावन सीताराम॥१०॥
अवधपुरी रघुनन्दन आए। घर-घर नारी मंगल गए॥
बारह वर्ष बिताये राम। पतित पावन सीताराम॥११॥
गुरु वशिष्ठ से आज्ञा लीनी। राजतिलक तैयारी कीनी॥
कल को होंगे राजा राम। पतित पावन सीताराम॥१२॥
कुटिल मंथरा ने बहकायी। केकैई ने यह बात सुनाई॥
दे दो मेरे दो वरदान। पतित पावन सीताराम॥१३॥
मेरी विनती तुम सुन लीजो। पुत्र भरत को गद्दी दीजो॥
होत प्रात: वन भेजो राम। पतित पावन सीताराम॥१४॥
धरनी गिरे भूप तत्काल। लागा दिल में शूल विशाल॥
तब सुमंत बुलवाये राम। पतित पावन सीताराम॥१५॥
राम, पिता को शीश नवाये। मुख से वचन कहा नहिं जाये॥
केकैयी वचन सुनायो राम। पतित पावन सीताराम॥१६॥
राजा के तुम प्राण प्यारे। इनके दुःख हरोगे सारे॥
अब तुम वन में जाओ राम। पतित पावन सीताराम॥१७॥
वन में चौदह वर्ष बिताओ। रघुकुल रीति नीति अपनाओ॥
आगे इच्छा तुम्हारी राम। पतित पावन सीताराम॥१८॥
सुनत वचन राघव हर्षाये। माता जी के मन्दिर आए॥
चरण-कमल में किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥१९॥
माता जी मैं तो वन जाऊँ। चौदह वर्ष बाद फिर आऊं॥
चरण कमल देखूं सुख धाम। पतित पावन सीताराम॥२०॥
सुनी शूल सम जब यह बानी। भू पर गिरी कौशल्या रानी।
धीरज बंधा रहे श्री राम। पतित पावन सीताराम॥२१॥
समाचार सुनी लक्ष्मण आए। धनुष-बाण संग परम सुहाए॥
बोले संग चलूँगा राम। पतित पावन सीताराम॥ २२॥
सीताजी जब यह सुध पाईं। रंगमहल से निचे आईं॥
कौशल्या को किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥ २३॥
मेरी चूक क्षमा कर दीजो। वन जाने की आज्ञा दीजो॥
सीता को समझाते राम। पतित पावन सीताराम॥२४॥
मेरी सीख सिया सुन लीजो। सास ससुर की सेवा कीजो॥
मुझको भी होगा विश्राम। पतित पावन सीताराम॥ २५॥
मेरा दोष बता प्रभु दीजो। संग मुझे सेवा में लीजो॥
अर्द्धांगिनी तुम्हारी राम। पतित पावन सीताराम॥ २६॥
राम लखन मिथिलेश कुमारी। बन जाने की करी तैयारी॥
रथ में बैठ गए सुख धाम। पतित पावन सीताराम॥ २७॥
अवधपुरी के सब नर-नारी। समाचार सुन व्याकुल भारी॥
मचा अवध में अति कोहराम। पतित पावन सीताराम॥२८॥

श्री हनुमान चालीसा

श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।

बरनउं रघुबर विमल जसु, जो दायकु पल चारि ।।

बुद्घिहीन तनु जानिकै, सुमिरौं पवन-कुमार ।

बल बुद्घि विघा देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ।।


जय हनुमान ज्ञान गुण सागर । जय कपीस तिहुं लोग उजागर ।।

रामदूत अतुलित बल धामा । अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ।।

महावीर विक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ।।

कंचन बरन विराज सुवेसा । कानन कुण्डल कुंचित केसा ।।

हाथ वज्र औ ध्वजा विराजै । कांधे मूंज जनेऊ साजै ।।

शंकर सुवन केसरी नन्दन । तेज प्रताप महा जगवन्दन ।।

विघावान गुणी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।।

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।।

सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा । विकट रुप धरि लंक जरावा ।।

भीम रुप धरि असुर संहारे । रामचन्द्रजी के काज संवारे ।।

लाय संजीवन लखन जियाये । श्री रघुवीर हरषि उर लाये ।।

रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ।।

सहस बदन तुम्हरो यश गावै । अस कहि श्री पति कंठ लगावै ।।

सनकादिक ब्रहादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ।।

यह कुबेर दिकपाल जहां ते । कवि कोबिद कहि सके कहां ते ।।

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राजपद दीन्हा ।।

तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना । लंकेश्वर भये सब जग जाना ।।

जुग सहस्त्र योजन पर भानू । लाल्यो ताहि मधुर फल जानू ।।

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही । जलधि लांघि गए अचरज नाहीं ।।

दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।।

राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।

सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रक्षक काहू को डरना ।।

आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हांक ते कांपै ।।

भूत पिशाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ।।

नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरन्तर हनुमत बीरा ।।

संकट ते हनुमान छुड़ावै । मन क्रम वचन ध्यान जो लावै ।।

सब पर राम तपस्वी राजा । तिनके काज सकल तुम साजा ।।

और मनोरथ जो कोई लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ।।

चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्घ जगत उजियारा ।।

साधु सन्त के तुम रखवारे । असुर निकन्दन राम दुलारे ।।

अष्ट सिद्घि नवनिधि के दाता । अस वर दीन जानकी माता ।।

राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।।

तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ।।

अन्तकाल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ।।

और देवता चित्त न धरई । हनुमत सेई सर्व सुख करई ।।

संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।।

जय जय जय हनुमान गुसांई । कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।।

जो शत बार पाठ कर सोई । छूटहिं बंदि महासुख होई ।।

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा । होय सिद्घि साखी गौरीसा ।।

तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय महं डेरा ।।


।। दोहा ।।

पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप ।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ।।


संकटमोचन हनुमानाष्टक

।। मत्तगयन्द छन्द ।।


बाल समय रवि भक्ष लियो तब, तीनहुं लोक भयो अँधियारो ।

ताहि सों त्रास भयो जग को, यह संकट काहु सों जात न टारो ।।

देवन आनि करी विनती तब, छांड़ि दियो रवि कष्ट निहारो ।

को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ।। 1 ।।

बालि की त्रास कपीस बसै गिरि, जात महाप्रभु पंथ निहारो ।।

चौंकि महामुनि शाप दियो तब, चाहिये कौन विचार विचारो ।

कै द्घिज रुप लिवाय महाप्रभु, सो तुम दास के शोक निवारो ।। 2 ।।

अंगद के संग लेन गए सिय, खोज कपीस यह बैन उचारो ।

जीवत न बचिहों हम सों जु, बिना सुधि लाए इहां पगु धारो ।

हेरि थके तट सिंधु सबै तब, लाय सिया सुधि प्राण उबारो ।। 3 ।।


रावण त्रास दई सिय को तब, राक्षसि सों कहि सोक निवारो ।

ताहि समय हनुमान महाप्रभु, जाय महा रजनीचर मारो ।

चाहत सीय अशोक सों आगि सु, दे प्रभु मुद्रिका सोक निवारो ।। 4 ।।

बाण लग्यो उर लक्ष्मण के तब, प्राण तजे सुत रावण मारो ।

लै गृह वैघ सुषेन समेत, तबै गिरि द्रोण सु-बीर उपारो ।

आनि संजीवनी हाथ दई तब, लक्ष्मण के तुम प्राण उबारो ।। 5 ।।

रावण युद्घ अजान कियो तब, नाग की फांस सबै सिरडारो ।

श्री रघुनाथ समेत सबै दल, मोह भयो यह संकट भारो ।

आनि खगेस तबै हनुमान जु, बन्धन काटि सुत्रास निवारो ।। 6 ।।

बन्धु समेत जबै अहिरावण, लै रघुनाथ पाताल सिधारो ।

देवहिं पूजि भली विधि सों बलि, देउ सबै मिलि मंत्र विचारो ।

जाय सहाय भयो तबही, अहिरावण सैन्य समैत संहारो ।। 7 ।।

काज किये बड़ देवन के तुम, वीर महाप्रभु देखि विचारो ।

कौन सो संकट मोर गरीब को, जो तुमसो नहिं जात है टारो ।

बेगि हरौ हनुमान महाप्रभु, जो कछु संकट होय हमारो ।। 8 ।।


।। दोहा ।।

लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर ।

बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर ।।


अथ बजरंग बाण

।। दोहा ।।


निश्चय प्रेम प्रतीत ते, विनय करें सनमान ।

तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्घ करैं हनुमान ।।

जय हनुमन्त सन्त हितकारी । सुन लीजै प्रभु अरज हमारी ।।

जन के काज विलम्ब न कीजै । आतुर दौरि महा सुख दीजै ।।

जैसे कूदि सुन्धु वहि पारा । सुरसा बद पैठि विस्तारा ।।

आगे जाई लंकिनी रोका । मारेहु लात गई सुर लोका ।।

जाय विभीषण को सुख दीन्हा । सीता निरखि परम पद लीन्हा ।।

बाग उजारी सिन्धु महं बोरा । अति आतुर जमकातर तोरा ।।

अक्षय कुमार मारि संहारा । लूम लपेट लंक को जारा ।।

लाह समान लंक जरि गई । जय जय धुनि सुरपुर मे भई ।।

अब विलम्ब केहि कारण स्वामी । कृपा करहु उन अन्तर्यामी ।।

जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता । आतुर होय दुख हरहु निपाता ।।

जै गिरिधर जै जै सुखसागर । सुर समूह समरथ भटनागर ।।

जय हनु हनु हनुमंत हठीले । बैरिहि मारु बज्र की कीले ।।

गदा बज्र लै बैरिहिं मारो । महाराज प्रभु दास उबारो ।।

ऊँ कार हुंकार महाप्रभु धावो । बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो ।।

ऊँ हीं हीं हनुमन्त कपीसा । ऊँ हुं हुं हनु अरि उर शीशा ।।

सत्य होहु हरि शपथ पाय के । रामदूत धरु मारु जाय के ।।

जय जय जय हनुमन्त अगाधा । दुःख पावत जन केहि अपराधा ।।

पूजा जप तप नेम अचारा । नहिं जानत हौं दास तुम्हारा ।।

वन उपवन, मग गिरि गृह माहीं । तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं ।।

पांय परों कर जोरि मनावौं । यहि अवसर अब केहि गोहरावौं ।।

जय अंजनि कुमार बलवन्ता । शंकर सुवन वीर हनुमन्ता ।।

बदन कराल काल कुल घालक । राम सहाय सदा प्रति पालक ।।

भूत प्रेत पिशाच निशाचर । अग्नि बेताल काल मारी मर ।।

इन्हें मारु तोहिं शपथ राम की । राखु नाथ मरजाद नाम की ।।

जनकसुता हरि दास कहावौ । ताकी शपथ विलम्ब न लावो ।।

जय जय जय धुनि होत अकाशा । सुमिरत होत दुसह दुःख नाशा ।।

चरण शरण कर जोरि मनावौ । यहि अवसर अब केहि गौहरावौं ।।

उठु उठु उठु चलु राम दुहाई । पांय परों कर जोरि मनाई ।।

ऊं चं चं चं चपल चलंता । ऊँ हनु हनु हनु हनु हनुमन्ता ।।

ऊँ हं हं हांक देत कपि चंचल । ऊँ सं सं सहमि पराने खल दल ।।

अपने जन को तुरत उबारो । सुमिरत होय आनन्द हमारो ।।

यह बजरंग बाण जेहि मारै । ताहि कहो फिर कौन उबारै ।।

पाठ करै बजरंग बाण की । हनुमत रक्षा करैं प्राम की ।।

यह बजरंग बाण जो जापै । ताते भूत प्रेत सब कांपै ।।

धूप देय अरु जपै हमेशा । ताके तन नहिं रहै कलेशा ।।

।। दोहा ।।

प्रेम प्रतीतहि कपि भजै, सदा धरैं उर ध्यान ।

तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्घ करैं हनुमान ।।


आरती बजरंगबली की

आरती कीजै हनुमान लला की । दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ।।

जाके बल से गिरिवर कांपै । रोग-दोष जाके निकट न झांपै ।।

अंजनि पुत्र महा बलदाई । संतन के प्रभु सदा सहाई ।।

दे बीरा रघुनाथ पठाए । लंका जारि सिया सुधि लाये ।।

लंका सो कोट समुद्र सी खाई । जात पवनसुत बार न लाई ।।

लंका जारि असुर सब मारे । सियाराम जी के काज संवारे ।।

लक्ष्मण मूर्च्छित पड़े सकारे । लाय संजीवन प्राण उबारे ।।

पैठि पताल तोरि जमकारे । अहिरावण की भुजा उखारे ।।

बाईं भुजा असुर संहारे । दाईं भुजा संत जन तारे ।।

सुर नर मुनि आरती उतारें । जय जय जय हनुमान उचारें ।।

कंचन थार कपूर लौ छाई । आरति करत अंजना माई ।।

जो हनुमान जी की आरती गावे । बसि बैकुण्ठ परमपद पावे ।।

लंक विध्वंस किए रघुराई । तुलसिदास प्रभु कीरति गाई ।।

रामस्तुति

नमो वेदादिरूपाय ऊंकाराय नमो नम:।
रमाधराय रामाय श्रीरामायाआत्मभूर्तये।।
ब्रह्मा स्वयम्भूश्चतुराननो वा रुद्रस्त्रिनेत्रस्त्रिपुरान्तको वा।।
इन्द्रो महेंद्र: सुरनायको वा स्थातुं न शक्ता युधि राघवस्य।।
आदिदेवो महाबाहुर्हरि: नारायण: प्रभु:।
साक्षाद् रामो रघुश्रेष्ठ: शेषो लक्ष्मण उच्चते।।
रामं लोकाभिरामं रघुवरतनयं कोशलामुक्तिपुर्यां
खेलतं कामकेलिं सुविमलसरयूतीरकुले नटन्तरम।
जानक्या चारूहासच्छबि विशदशरच्चंद्रिकाकांतिमत्या
संयुक्तं राजवेषं ललितरसमयं ब्रह्म पूर्ण नमामि।।
मत्स्यं कूर्म वराहं नृहरिमथ हरिं वामनं हंसरूपं
यज्ञं नारायणाख्यं त्रिभुवनललितं भार्गवं वै हयास्यम्।
प्रद्युम्नं वासुदेवं कलिमलदमनं रेवतीप्राणनाथं
बुद्धं कल्किं यदंते न भवति सकलं ब्रह्म रामं स्मरामि।।
य: पृथ्वीभरवारणाय दिविजै: संप्रार्थितश्चिन्मय:
संजात: पृथ्वीतले रघुकुले मायामनुष्योअव्यय:।।
निश्चक्रं हतराक्षस: पुनरगाद ब्रह्मत्वमाद्यं स्थिरां
कीर्ति पापहरां विधाय जगतां तं जानकीशं भजे।
विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं
मायाश्रयं विगतमायमचिंत्यमूर्तिम।
आनंदसांद्रममलं निजबोधरूपं
सीतापतिं विदिततत्वमहं नमामि।।
गुर्वर्थे त्यक्त राज्यो व्यचरदनुवनं पद्मपद्मभ्यां प्रियाया
पाणिस्पर्शाक्षमाभ्यां मृजिंतपथरुजो यो हरीन्द्रानुजाभ्यां।
वैरूप्याच्छूर्पणख्या: प्रियविरहरुषाअरोपितभ्रूविजृम्भ-
त्रस्ताब्धिर्बद्धसेतु खलदवदहन: कोसलेंद्रोअवतान्न:।।
श्रीमन्तं श्रुतिवेद्यमद्भुतगुणग्रामाग्य्ररत्नाकरं
प्रेय: स्वेक्षणसंसुलज्जितमहीजाताक्षिकोणेक्षितम।
भक्तोशेषमनोभिवांछितचतुर्वर्गप्रदस्वर्द्रुमं
रामं स्मेरमुखांबुज शुचिमहानीलाश्मकांतिं भजे।।
प्रत्यूहव्यूहभंगं विदधदुरुबल: शक्तिमान् सर्वकारी
भूरिश्रेय:प्रतापो मुनिवरनिकरै: स्तूयमानो विमान:।
रक्षोदैत्यादिनाशी क्षुभितजलनिधिर्लोकजिल्लोकमान्यो
धन्यो नो मंलौघं सपदि स कुरुताद् रामशस्त्रास्त्रसंघ:।।
ऐश्वर्यं यदपांसंश्रयमिदं भोग्यं दिगीशैर्जग-
च्चित्रं चाखिलमद्भुतं शुभगुणा वात्सल्यसीमा च या।
विद्युत्पुंजसमानकांतिरमितक्षांति: सुपद्मेक्षणा
दद्यान्नोअखिसंपदो जनकजा रामप्रिया सानिशम्।।
शातं शाश्वतंप्रमेयमनघं निर्वाणशांतिप्रदं
ब्रह्माशंभुफणींद्रसेव्यमनिशं वेदांतं वेद्यं विभुम।
रामाख्यं जगदीश्वरम सुरगुरूम मायामनुष्यं हरि।
वंदेहं करूणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम।।
रामं कामारिसेव्य भवभयहरणं कालमत्तेभसिंह
योगींद्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारं
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृंदैकदेवं
वंदे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम।।

मंत्रपुष्पांजलि

ऊं यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमन्यासन्।
तेह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा:।।
ऊं राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने नमो वयं वैश्वणाय कुर्महे।
स मे कामान कामकामाय मह्यं कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु।।
कुबेराय वैश्रवणाय, महाराजाय नम:।।
ऊं स्वस्ति, साम्राज्य भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं
पारमेष्ठयं राज्यं माहाराज्यधिपत्यमयं
समस्त प्रयायां स्यात सार्वभौम: सार्वायुष
आन्तादापरार्धात। पृथिव्यै समुद्रपर्यन्ताया एकराडिति।
तदप्येष श्लोकोअभिगीतो
मरूत: परिवेष्टारो मरूत् तस्यावसन गृहे
आविक्षितस्य कामाप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति।।
ऊं विश्वतश्चक्षुरूत विश्वतोमुखो
विश्वतोबाहुरूत विश्वतस्पात।
संबाहुभ्यतां धमति संपतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एक:।।
ऊं दाशरथाय विधये जानकीवल्लभाय धीमहिॆ.
तन्नो राम: प्रचोदयात।।

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