Wednesday, November 9, 2016

कार्तिक पूर्णिमा स्नान और काशी की देवदीपावली


DevDeepawali at Panchganga ghat, Kashi
* स्वामी पद्मनाभम
कार्तिक पूर्णिमा को कार्तिकी भी कहते हैं। कार्तिकी को ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्यने महापुनीत पर्व प्रमाणित किया है। इस दिन अगर भरणी या कृतिका नक्षत्र पड़े, तो स्नान का विशेष फल मिलता है। इस दिन कृतिका नक्षत्र हो तो यह महाकार्तिकी होती है, भरणी हो तो विशेष स्नान पर्व का फल देती है और यदि रोहिणी हो तो इसका फल और भी बढ़ जाता है। 
इस बार यानि साल 2016 में यह कार्तिक पूर्णिमा १४ नवम्बर, सोमवार को संध्या ४:२७ बजे तक भरणी नक्षत्र, तदोपरान्त कृतिका नक्षत्र एवं विशाखाका सूर्य है। कार्तिक पूर्णिमा को कृतिका नक्षत्र का योग होनेसे यह (महाकार्तिकी) अतिशय पुण्यदायी हो गयी है। यथा- " आग्नेयं तु यदा ऋक्षं कार्तिक्यां भवति क्वचित्। महती सा तिथिर्ज्ञेया स्नानदानेषु चोत्तमा "-॥यमस्मृति॥
कहा जाता है कि इस योग में जो कार्तिकेयका दर्शन करता है वो सात जन्म तक धनाढ्य और वेद-पारग ब्राह्मण होता है। यथा-
"कार्तिक्यां कृत्तिकायोगे यः कुर्यात् स्वामिदर्शन्म्। सप्त जन्म भवेद् विप्रो धनाढ्यो वेदपारगः" ॥ काशीखंड॥

साथ ही साथ यह द्रष्टव्य है कि सूर्य विशाखा नक्षत्र पर (६ नवम्बर प्रातः ०७:३२ बजे से) हैं अतः पद्मक योग की भी सृष्टि हो रही है, जो पुष्कर तीर्थ में दुर्लभ माना गया है। यथा-
"विशाखासु यदा भानुः कित्तिकासु च चन्द्रमाः। स योगः पद्मको नाम पुष्करे त्वतिदुर्लभे"॥ पद्मपुराण॥

देव दीपावली की पौराणिक पृष्ठभूमि-
देवदीपावली की पृष्ठभूमि पौराणिक कथाओं से परिपूर्ण है। एक कथा के अनुसार भगवान शंकर ने सभी को उत्पीडि़त करने वाले राक्षस त्रिपुरासुर का वध देवताओं की प्रार्थना पर किया, जिसके उल्लास में देवताओं ने दीपावली मनाई, जिसे आगे चलकर देव दीपावली के रूप में मान्यता मिली। भार्गवार्चन दीपिकामें लिखा है-
कीटाः पतंगा मशकाश्च वृक्षा जले स्थले ये विचरन्ति जीवाः।
दृष्ट्वा प्रदीपं न च जन्मभागिनो भवन्ति नित्यं श्वपचा हि विप्राः॥

पौर्णमास्यां तु सन्ध्यायां कर्तव्यस्त्रिपुरोत्सवः। दद्यात् पूर्वोक्त मन्त्रेण सुदीपांश्च सुरालये॥भविष्य.॥
 यह भी मान्यता है कि इस दिन चन्द्रोदय के समय शिवा, सम्भूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा (इन ६ कृत्तिकाओं) के पूजन से शिवजी की प्रसन्नता प्राप्त होती है और गंगा-स्नान से पूरे वर्ष गंगा-स्नानका लाभ मिलता है। फलतः काशी के घाटों पर ३३ कोटि देवताओं द्वारा भगवान् विष्णु का आराधन किया जाता है और फिर देव दीपावली मनायी जाती है।
एक अन्य कथानक के अनुसार राजर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से त्रिशंकु को स्वर्ग पहुंचा दिया। देवतागण इससे उद्विग्न हो गए और त्रिशंकु को देवताओं ने स्वर्ग से भगा दिया। शापग्रस्त त्रिशंकु अधर में लटके रहे। स्वर्ग से निष्कासित त्रिशंकु को देखकर क्षुब्ध विश्वामित्र ने पृथ्वी-स्वर्ग आदि से मुक्त एक नई समूची सृष्टि की ही अपने तपोबल से रचना प्रारंभ कर दी यथा- कुश, मिट्टी, ऊँट, बकरी-भेड़, नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा आदि। इसी क्रम में विश्वामित्र ने वर्तमान ब्रह्मा-विष्णु-महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण फूंकना आरंभ किया। सारी सृष्टि हिल उठी। हर ओर हाहाकार मच गया। हाहाकार के बीच देवताओं ने राजर्षि विश्वामित्र की अभ्यर्थना की ,जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने नई सृष्टि की रचना का अपना संकल्प वापस ले लिया। देवताओं और ऋषि-मुनियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल सभी जगह इस अवसर पर दीपावली मनाई गई। यही अवसर अब देवदीपावली के रूप में विख्यात है।
इसी तिथिमें सायंकाल विष्णुक्का मत्स्यावतार हुआ है:-
"वरान् दत्वा यतो विष्णुर्मत्स्यरूपोऽभवत् ततः।
तस्यां दत्तंहुतं जप्तं तदक्षय्यफलं स्मृतम् "॥प.पु. कार्तिक माहात्म्य॥

शरद् ऋतु को भगवान की महारासलीला का काल माना गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार शरद् पूर्णिमा की चाँदनी में श्रीकृष्ण का महारास संपन्न हुआ था। उसी का द्योतक यह आकाशदीप माना जाता है। दीपक पवित्रता और शुचिताका साक्षी माना गया है और इसी कारण से प्रत्येक पूजा कर्ममें प्रथमतः कर्म दीपक जलाया जाता है। अतः आकाशदीपदान निम्नलिखित मन्त्रोंसे करते हैं-
 दामोदराय विश्वाय विश्वरूपधराय च। नमस्कृत्वा प्रदास्यामि व्योमदीपं हरिप्रियम्॥

 भगवान् विष्णु, वामनावतारके पश्चात्, बलिके पाससे लौटकर अपने निवासस्थान वैकुण्ठको पधारे थे अतः देवताओंने प्रसन्नताके दीपक जलाये। उसी की स्मृतिमें आकाशदीपदान कर देवदीपावली मनायी जाती है।
इसी पृष्ठभूमि में शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होने वाली दीपदान की परंपरा आकाशदीपों के माध्यम से काशी में अनूठे सांस्कृतिक वातावरण का द्योतक है। गंगा के किनारे घाटों पर और मंदिरों, भवनों की छतों पर आकाश की ओर उठती दीपों की लौ यानी आकाशदीप के माध्यम से देवाराधन और पितरों की अभ्यर्थना तथा मुक्ति-कामना की यह बनारसी पद्धति है।
शंकराचार्य की प्रेरणा से प्रारंभ होने वाला यह दीप-महोत्सव पहले केवल पंचगंगा (गंगा, सरस्‍वती, धुपापापा, यमुना और किरना के संगम)  की शोभा थी। आगे चलकर काशी के सभी घाटों की नयनाभिराम छवि का यह पावन अवसर बन गया।
परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम-देव दीपावली- धर्मपरायण महारानी अहिल्याबाई होलकर के प्रयत्नों से भी जुड़ा है। उन्होंने ही प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना खूबसूरत 'हजारा दीपस्तंभ’  स्थापित किया था, जो इस परंपरा का साक्षी है। अब जो देवदीपावली प्रचलन में है, उसकी शुरुआत दो दशक पूर्व यहीं से हुई थी। पंचगंगा का यह 'हजारा दीपस्तंभ' देव दीपावली के दिन 1001 से अधिक दीपों की लौ से जगमगा उठता है और अभूतपूर्व दृश्य की सृष्टि करता है।

 इस विस्मयकारी दृश्य की संकल्पना की पृष्ठभूमि में पूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डॉ. विभूतिनारायण सिंह की प्रेरणा उल्लेखनीय थी। बाद में श्रीमठ पीठाधीश्वर जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी ने इस संकल्प को भव्य आयाम प्रदान किया।
हरिहरक्षेत्र का मेला-
कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान के बाद शुरू होता है एक मेला जो बिहार की राजधानी पटना से लगभग 25 किमी तथा वैशाली जिले के मुख्यालय हाजीपुर से 3 किलोमीटर दूर छपरा, जिले के सोनपुर में गंडक और गंगा के संगम तट लगता है। सोनपुर मेले को  विश्व का सबसे बडा पशु मेला माना जाता है। मेलों से जुडे तमाम आयोजन यहां होते ही हैं। यहां हाथियों व घोडों की खरीद हमेशा से सुर्खियों में रहती है। पहले यह मेला हाजीपुर में होता था। सिर्फ हरिहरनाथ की पूजा सोनपुर में होती थी, लेकिन बाद में मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश से मेला भी सोनपुर में ही लगने लगा।


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