Thursday, September 15, 2016

संत-श्रीमहंतों के बीच मंच पर विराजते स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज

सूरत में आयोजित शतमुख कोटि होमात्मक श्रीराम महायज्ञ के दौरान मंच पर विराजमान जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य

पटना चातुर्मास्य में समरस समाजके निर्माणमें संतों का योगदान विषयक संगोष्ठी

पटना चातुर्मास्य के दौरान हिन्दी दिवस पर संगोष्ठी का उदघाटन करते स्वामी रामनरेशाचार्य जी एवम् हिन्दी सेवी विद्वान

पटना में जारी दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञके सम्पादन के क्रम में हिन्दी दिवस यानि 14 सितंबर को एक विद्वत् गोष्ठी का समायोजन जगदगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज के सान्निध्य में सुसम्पन्न हुआ, जिसमें भीमराव अंबेडकर विवि. मुजफ्फरपुर के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रमोद कुमार सिंह, नालंदा खुला विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर रासबिहारी सिंह, और बिहार-झारखंड के पूर्व मुख्य सचिव श्री विजय शंकर दुबे और काशी से पधारे प्रो. अशोक कुमार सिंह की गरिमामयी उपस्थिति रही। पूरे कार्यक्रम के संयोजक थे प्रो. डॉ. श्रीकान्त सिंह, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, कॉलेज ऑफ कॉमर्स, पटना। 

  सबसे पहले अभिनंदनीय संत-साहित्यके मर्मज्ञ महानुभावों का संक्षिप्त परिचय डॉ. श्रीकान्त सिंह ने कराया। कार्यक्रम का शुभारंभ जगगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज एवं संत-साहित्यके मर्मज्ञ महानुभावोंके द्वारा सूर्य-साक्षी स्वरूप दीप-प्रज्वलनन सह परम प्रभु श्री सीतारामजी के माल्यार्पणके साथ  हुआ।


मंगलाचरणके पश्चात् काशी से पधारे प्रो. अशोक सिंह को आमंत्रित किया गया, जिन्होंने एक गीत -"सात खंड नवद्वीप विदित यह कलिमल हरनी गाथा...." के माध्यमसे आद्य जगदगुरु रामानन्दाचार्यजी की जीवन- गाथा से लेकर सम्प्रति जगदगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी तक की कृतिको अपनी रसमयी वाणी में प्रस्तुत किया । शीर्षक की व्याख्या करते हुये डॉ. श्रीकान्त सिंहने ’संत’ तथा ’समरसता’ को परिभाषित किया। 


पश्चात् प्रो. रास बिहारी प्रसाद सिंह, कुलपति नालंदा खुला वि.वि. ने कहा कि मैं साधु और संतमें भेद मानता हूँ। साधु समाजसे कम जुड़ा रहता है पर संत समाजसे जुड़कर उसका कल्याणकामी होते हैं।


  बिहार और झारखंड सरकार के मुख्य सचिव और नालंदा खुला विवि के पूर्व कुलपति
श्री विजय शंकर दुबे  कहा कि वर्तमान समाज की रक्षा केवल रामानन्द सम्प्रदाय का मूल मंत्र ’जाति पाँति पूछै नहीं कोई। हरिको भजै सो हरि का होई॥’ के द्वारा ही सम्भव है और यह मात्र संत-समाज और विशेषतः स्वामी रामनरेशाचार्यजी जैसे संत ही कर सकते हैं। कोई सरकार, प्रशासन या राजनीतिज्ञ नहीं कर सकता। कबीर भी संत थे तथा तुलसीदास भी संत थे, पर समाजके प्रति जो अवदान गोस्वामी तुलसीदासजी का है वह कबीर का नहीं है। उन्होंने कहा कि ’ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी’ नहीं पर यह ’ढोल, गंवार, सूद, पशु नारी’ है यह राजापुरवालों का है। सूदका अर्थ है- हिंसक।

अगले वक्ता के रूप में उदबोधन हुआ प्रो. प्रमोद कुमार सिंह, पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष,  मुजफ्फरपुर का। इन्होंने सर्वप्रथम बताया कि ’क्षुद्र’ शब्द ही ’शूद्र’ हो गया है। काव्य-शास्त्रमें जो वक्तव्य होता है वह कवि का नहीं वरन वक्ता का होता है। अतः ’ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी’ समुद्र का वक्तव्य है। अतः तुलसीदास को इससे लांक्षित नहीं किया जा सकता। 


संत तो निःश्रेयस की ओर ले जाता है। संत सम भाव हैं, समत्व है, समदर्शी होता है। समदर्शिताके बिना कोई संत नहीं हो सकता। जैसे सदना, जो स्वामी रामानन्दका शिष्य था।


आचार्य श्री स्वामी रामनरेशाचार्यजी ने अपने मंगलाशीर्वचन में सभी विद्वानों के भावों का समर्थन करते हुए समरसता को सहज भावसे समझाया। इसके पश्चात् स्वामी जी महाराज ने विद्वानों को साविधि स्वयं अभिषेक कर पुष्पमाला, शॉल, मिष्टान, मठ साहित्य और दक्षिणादिक द्वारा सम्मानित किया। अंत में संत साहित्य के विद्वान और काशी से पधारे प्रोफेसर डॉ. उदय प्रताप सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन किया।

Monday, September 12, 2016

प्रभु को अर्पित करने के बाद ग्रहण करें भोजन - जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य

पटना,11 सितंबर।

सात्विक पदार्थो को सात्विक मन से परम प्रभु के लिए ही पकाया जाना और उन्हें ही सबसे पहले श्रेष्ठ प्रेम एवं संयतमना होकर समर्पित किया जाना, तत्पश्चात् उनका प्रसाद उनके ही रूप में ग्रहण करना एक आराधना ही है। यह आराधना महाराधना हो जाती है जब भोग हो प्रभुका छप्पन भोग और प्रसादग्राही हो ऊंच-नीच, जाति-भेद, वर्ण-भेद आदि से रहित सर्वजन। यह विचार जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य ने राजधानी में चल रहे दिव्य चातुर्मास्य के दौरान रखे। 

पटना में समष्टि भंडारे का चित्र
राजधानी के लाला लाजपथ राय भवन में चल रहे कार्यक्रम में रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज  ने कहा कि वैसे तो वैष्णवाराधन एक चलन सा हो गया है, पर प्रसाद की महत्ता तो तब ही अक्षुण्ण रह पाती है जब भोग के संसाधन, उसका पाक, प्रभु को अर्पण, प्रसाद-वितरण तथा उसकी सम्प्राप्ति सब कुछ नियमानुकूल और विधिवत हो।

 दिव्य चातुर्मास्य महोत्सव महायज्ञ के दौरान रविवार को बैंक रोड के मुहाने पर मंगलमय छप्पन भोग का भंडारा का आयोजन किया गया। स्वामी जी ने इस अवसर पर कहा कि जितनी भी अच्छी-से अच्छी वस्तुएं होती हैं, उसे हम सम्यक मन से प्रभु को समर्पित करते हैं। सब उन्हीं का तो है। ’त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।’ यह केवल वाच्यात्मक नहीं भावनात्मक भी होनी चाहिये। तब प्रभु अपना सायुज्य देते हैं, यहां तक कि भोग में अपनी साम्यता भी दे देते हैं।

 प्रभु ऐसे समतावादी हैं कि जो भोग वे स्वयं लेते हैं अपने भक्तों को भी प्रदान कर देते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सम्यक रूप से भावभावित प्रेमरस संपृक्त अर्पण प्रभु का सायुज्य देते हुए भोग की साम्यता भी करवा डालती है। छप्पन भोगात्मक समष्टि भण्डारा का (वैष्णवाराधन) के समायोजन में सेवा-व्रति लोग मोह-ग्रस्त हो रहे थे, परन्तु जब आचार्यश्री ने यह समझाया कि यह तो प्रभु-कार्य है, इसमें आप तो केवल निमित्तमात्र हैं। गीता में कहा है- निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन। यह एक विराट महायज्ञ है, आप इसमें निमित्त बनें, शेष तो प्रभु स्वयं संभाल लेंगे। अजरुन का मोह नष्ट हुआ और कार्य में प्रवृत्त होने पर प्रभु-साक्षात्कार भी हुआ।

भगवत्प्रसाद का सेवन परम पुरुषार्थ यानि मोक्ष का साधन है- स्वामी रामनरेशाचार्य




पटना में समष्टि भंडारे का शुभारंभ करते स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज

पटना में चल रहे जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज, श्रीमठ,काशी के दिव्य चातुर्मास्य महोत्सव के दौरान बिस्कोमान भवन के सामने रविवार-11 सितंबर,2016 को विशाल सामूहिक भंडारे का आयोजन सुबह 10 बजे से रात 10 बजे तक किया गया। खास बात ये रही कि स्वामीजी ने अपने हाथों प्रसाद वितरित कर इसका शुभारंभ किया और दिन भर साधु-संतों के हाथों से आम जन ने प्रसाद पाया। इसके पहले भगवान का 56 प्रकार के व्यंजनों से भोग लगा, जो प्रसाद रुप में वितरित हुआ।

भक्तों और अभ्यागतों के बीच भंडारे का प्रसाद परोसते संत गण
भंडारे का महात्म्य-

वैदिक सनातन धर्म में भोजन केवल भूख मिटानेका ही साधन नहीं, अपितु वह परम कल्याणकामी विशिष्ट साधन है। उसकी प्रक्रिया यह है कि सात्विक पदार्थों को परम प्रभु के लिये ही पकाया जाय तथा उन्हें ही सबसे पहले श्रेष्ठ प्रेम एवं संयतमना होकर समर्पित किया जाय, तदन्तर उसका प्रसाद भगवान्‌ के रूप में ही ग्रहण किया जाय। यह भी एक आराधना ही है। जैसे संसारी-जन जिस किसी भी प्रकार से धन का संग्रह कर धनवान होना चाहते हैं, वैसे ही कल्याणकामी भी हर-किसी प्रकारसे परम प्रभु को अपने भीतर (अपने मनमें) ले जाना चाहता है।

 भगवदर्पण तथा उसका सेवन उसी प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। तभी तो गीता में कहा गया है कि जो लोग अपने लिये भोजन पकाते हैं, वे तो पाप को ही पकाते हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर उपासना-स्वरूप यज्ञादि को छोड़ने के लिये शास्त्रों ने मना किया। यज्ञादि के सम्पादन से उनका प्रसाद प्राप्त होगा तथा उनके माध्यम से बना हुआ मन ही वस्तुतः ज्ञान एवं भक्ति का श्रेष्ट उत्पादक होगा, जिसके माध्यम से व्यष्टि एवं समष्टि में राम-राज्य अवतरित होगा। जैसा-तैसा अन्न, वैसा ही पाक तथा वैसा ही भोजन एवं उससे बना मन तो कभी भी सही ज्ञान एवं भक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं। अतएव राक्षसी जीवन को ही देते हैं।
प्रभुराम को 56 भोग

इसी को ध्यान में रखकर दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञ के समापन की पूर्व संध्या पर रविवार, 11 सितंबर,2016 को प्रातः 10 बजे से रात्रि 10 बजे तक पटना गांधी मैदान से सटे बिस्कोमान भवन के सामने "परम मंगलमय छप्पन भोगात्मक समष्टि भण्डारा का (वैष्णवाराधन)" समायोजन किया गया। महाराज श्री ने एक दिन पहले ही भक्तों और आमजनों का आह्वान किया कि  आप सब सादर सप्रेम आमंत्रित हैं। पधारिये, प्रसाद ग्रहण कीजिये तथा सर्वश्रेष्ठ मानव जीवनको परम धन्यतासे मण्डित कीजिये। स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज ने मोक्षकामियोंको सम्बोधित करते हुए लाला लाजपत राय स्मारक सभागारमें ये बातें कही। 


इस महायज्ञके समायोजक दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञ समिति बिहार है।

भंडारे के  मुख्य सेवाव्रती निम्नांकित मंगलमयी सेवैकनिष्ठ महानुभाव रहे-
१. श्री आर. के. सिन्हा, सदस्य राज्य सभा,  श्री विष्णु बिंदल- स्वस्तिक कोल कॉरपोरेशन, इन्दौर (मध्य प्रदेश), श्रीआर. पी. सिंह, कमलादित्य कन्स्ट्रक्शन, बोकारो। श्री सत्येन्द्र पाण्डेय एवं गीता पाण्डेय, पीएनबी,  आरा,  श्री सुरेन्द्र सिंह, पूर्व शिक्षक, फुलाड़ी (भोजपुर) , श्री वीरेन्द्र कुमार ’मुन्ना’ करवाँ, आरा।  श्री ब्रजेश सहाय, सामाजिक कार्यकर्त्ता, बक्सर।  श्री विनोद कुमार मंगलम्, पटना;  श्री नृपेन्द्र कुमार- पीएनबी, पटना, श्री आनन्द कौशिक- पीएनबी, पटना। श्री दयाशंकर उपाध्याय- पीएनबी, आरा। श्री प्रशान्त तिवारी, पी. एन. बी. आरा; अवध किशोर शर्मा, खजरेठा, खगरिया; श्रीमती अंजलि कुमारी, समाजसेविका, पटना, कुन्दन कुमार , पीएनबी,  सासाराम एवं श्री लक्ष्मण तिवारी- बरिसवन ,आरा।

Thursday, September 8, 2016

श्री गुरु गीता से जाने शिष्य धर्म

शिष्य धर्म को जानें-
शिष्य वह है जो नित्य गुरु मंत्र का जप उठते, बैठते, सोते जागते करता रहता है।

चाहे कितना ही कठिन एवं असंभव काम क्यो न सोपा जाए, शिष्य का मात्र कर्तव्य बिना किसी ना नुकर के उस काम में लग जाना चाहिए।

गुरु शिष्य की बाधाओं को अपने ऊपर लेते है, अतएव यह शिष्य का भी धर्म है की वह अपने गुरु की चिंताओं एवं परेशानियों को हटाने के लिए प्राणपण से जुटा रहे।

शिष्य का मात्र एक ही लक्ष्य होता है, और वह है, अपने ह्रदय में स्थायी रूप से गुरु को स्थापित करना।

और फिर ऐसा ही सौभाग्यशाली शिष्य आगे चलकर गुरु के ह्रदय में स्थायी रूप से स्थापित हो पाता है।

जब ओठों से गुरु शब्द उच्चारण होते ही गला अवरूद्ध हो जाए और आँखे छलछला उठें तो समझे कि शिष्यता का पहला कदम उठ गया है।

और जब २४ घंटे गुरु का अहसास हो, खाना खाते, उठते, बैठते, हंसते गाते अन्य क्रियाकलाप करते हुए ऐसा लगे कि वे ही है मैं नहीं हूं, तों समझें कि आप शिष्य कहलाने योग्य हुए है।

जो कुछ करते हैं, गुरु करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्ही की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।

गुरु से बढ़कर न शास्त्र है न तपस्या, गुरु से बढ़कर न देवी है, व देव और न ही मंत्र, जप या मोक्ष। एक मात्र गुरुदेव ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं
शिव शासनतः शिव शासनतः शिवन शासनतः, शिव शासनतः

जो इस वाक्य को अपने मन में बिठा लेता है, तो वह अपने आप ही शिष्य शिरोमणि बन कर गुरुदेव का अत्यन्त प्रिय हो जाता है। गुरु जो भी आज्ञा देते है, उसके पीछे कोई-रहस्य अवश्य होता है। अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरु कि आज्ञा का पूर्ण तत्परता से, अविलम्ब पालन करना चाहिए, क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यो आया है, इस युग में क्यो जन्मा है, वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है, इस सबका ज्ञान केवल गुरु ही करा सकता है।

शिष्य को न गुरु-निंदा करनी चाहिए और न ही निंदा सुननी चाहिए। यदि कोई गुरु कि निंदा करता है तो शिष्य को चाहिए कि या तो अपने वाग्बल अथवा सामर्थ्य से उसको परास्त कर दे, अथवा यदि वह ऐसा न कर सके, तो उसे ऐसे लोगों की संगति त्याग देनी चाहिए। गुरु निंदा सुन लेना भी उतना दोषपूर्ण है, जितना गुरु निंदा करना।

गुरु की कृपा से आत्मा में प्रकाश सम्भव है। यही वेदों में भी कहा है, यही समस्त उपनिषदों का सार निचोड़ है। शिष्य वह है, जो गुरु के बताये मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लाभ लेकर अपने जीवन में चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।

सदगुरु के लिए सबसे महत्वपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है और जो शिष्य बन गया, वह कभी भी अपने गुरु से दूर नहीं होता। क्या परछाई को आकृति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो सदगुरु कि परछाई की तरह होते है।

जिसमे अपने आप को बलिदान करने की समर्थता है, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खडा कर देने और अपनी पहचान के साथ-साथ गुरु की मर्यादा, सम्मान समाज में स्थापित कर देने की क्षमता हो वही शिष्य है।

गुरु से जुड़ने के बाद शिष्य का धर्म यही होता है, कि वह गुरु द्वारा बताये पथ पर गतिशील हो। जो दिशा निर्देश गुरु ने उसे दिया है, उनका अपने दैनिक जीवन में पालन करें।

यदि कोई मंत्र लें, साधना विधि लें, तो गुरु से ही लें, अथवा गुरुदेव रचित साहित्य से लें, अन्य किसी को भी गुरु के समान नहीं मानना चाहिए।

शिष्य के लिए गुरु ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाए तो उसे छोटे-मोटे अधिकारी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए श्रेष्ठ शिष्य वहीं है, जो अपने मन के तारों को गुरु से ही जोड़ता है।

शिष्य यदि सच्चे ह्रदय से पुकार करे, तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर गुरुदेव तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरुदेव तक पहुंचती ही है, इसमे कभी संदेह नहीं करना चाहिए।

मलिन बुद्धि अथवा गुरु भक्ति से रहित, क्रोध लोभादी से ग्रस्त, नष्ट आचार-विचार वाले व्यक्ति के समक्ष गुरु तंत्र के इन दुर्लभ पवित्र रहस्यों को स्पष्ट नहीं करना चाहिए।

वास्तविकता को केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आम का स्वाद उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना द्वारा विकसित ज्ञान द्वारा ही परम सत्य का साक्षात्कार सम्भव है।

 साभार -श्री गुरु गीता

शरणागतिके सभी अधिकारी हैं- स्वामी रामनरेशाचार्य

पटना में चल रहे चातुर्मास महायज्ञ के दौरान लाला लाजपत राय भवन में संध्याकालिन सत्संग के दौरान जगदगुरु रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज ने कहा कि लौकिक कर्मोंके समान कल्याणमार्गमें भी अधिकारीकी व्यवस्था है। सबलोग सभी कर्मोंको नहीं करवा सकते। अतएव कर्मसाधकोंको आमन्त्रित करनेवाला यह विज्ञापित करता है कि हमारे संस्थान (उद्योग)को कैसा साधक चाहिये। यदि वैसी योग्यतासे युक्त साधक नहीं हो तो उसे, अपने लिये उपयुक्त नहीं मानकर, लौटा देता है। उसे पूर्ण विश्वास होता है कि यह हमारे संस्थानकी फलदायकताको समृद्ध नहीं कर सकता।

    इसी प्रकारसे वैदिकशास्त्रोंने भी तत्-तत् फलदायक कर्मोंके सम्पादनके लिये अधिकारीका निर्धारण किया है।  मोक्षदायक ज्ञानकी प्राप्तिके लिये वे ही अधिकारी हैं जो साधन-चतुष्टय सम्पन्न हैं; अर्थात् जिनके पास नित्य तथा अनित्यका विवेक हो, इस लोक एवं परलोकके समस्त भोगसाधनोंसे पूर्णतः विरक्ति हो, शम-दमादि छः सम्पत्तियाँ हों तथा दृढ़मुमुक्षुत्व (प्रबलतम मोक्षप्राप्तिकी इच्छा) हो। इतना ही नहीं, उपर्युक्त विशिष्ट साधनोंसे सम्पन्न साधकको ब्राह्मण होना आवश्यक है, वह भी पुरुष जाति का। क्योंकि ब्रह्मविद्याके अनुष्ठानमें उपनयन-संस्कारसे मण्डित वेदाध्ययनके लिये अधिकृत मात्र ब्राह्मण ही है। वही संन्यासी बनकर ज्ञान-साधनाके अनुसार ज्ञानको प्राप्तकर मोक्षको प्राप्तकर सकता है। इस साधनामें क्षत्रियादि तथा स्त्रियोंकी अधिकारिता सर्वथा अवरुद्ध है।

   उन्होंने जोर देकर कहा कि कुछ आचार्योंने भक्तिको भी ब्रह्म-विद्या स्वरूप स्वीकारकर उसके प्रवेश-द्वारको क्षत्रियादि एवं स्त्रियोंके लिये बन्ध कर दिया है। केवल ब्राह्मण ही भक्ति-साधनाका अधिकारी है। इस सम्बन्धमें अन्यान्य महामनीषि आचार्य सहमत नहीं हैं। उनकी परमोदार घोषणा है कि भक्ति- साधनाके सभी अधिकारी हैं। उसका सम्पादन कर सभी मानव जीवनको परम धन्यतासे मण्डित कर सकते हैं।

    परन्तु शरणागतिकी उदारता तो आकाशके समान है। धन्य है वैदिक सनातन धर्म, धन्य हैं राम-कृष्णादि भगवदवतार तथा धन्य हैं वे आचार्य व सन्तगण जिन्होंने शरणागतिको प्रचारित एवं प्रसारितकर असंख्य जीवोंको परमफलसे विभूषित किया।
इन विचारोंको जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराजने अभिव्यक्त किया कल्याणकामियोंके लिये; जो अपने पटना-प्रवास के क्रममें लगातार लाला लाजपत राय सभागारमें विचारामृतकी वर्षा कर रहे हैं।

Monday, September 5, 2016

अबलौं नसानी अब न नसैहौं' का पटना में लोकार्पण

पटना में चल रहे जगदगुरु रामानन्दाचार्य श्रीरामनरेशाचार्यजी महाराज के चातुर्मास्य महोत्सव के दौरान गत 2 सितंबर, 2016 को  'अबलौं नसानी अब न नसैहौं' नाम से प्रवचन पुस्तक का विमोचन संपन्न हुआ। चित्र में (दाएँ से) श्री ज्ञानेश उपाध्याय-राजस्थान पत्रिका, डॉ. संजय पासवान-पूर्व मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री, श्रीप्रमोद मुकेश-संपादक,दैनिक भास्कर, पटना,  पूज्य महाराजश्री, पदमश्री रामबहादुर राय-अध्यक्ष-इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, श्रीनरपतसिंह राजवी-विधायक एवं पूर्व मंत्री तथा शास्त्री डॉ. कोसलेन्द्र दास। 

महाराज श्री के प्रवचनों के इस संग्रह का संकलन और संपादन ज्ञानेश उपाध्याय ने किया है। ये उनकी चौथी पुस्तक है।

पटना चातुर्मास्य महायज्ञ के दौरान सामाजिक समरसता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी

पटना चातुर्मास्य महायज्ञ के दौरान 2 सितंबर,2016 को आयोजित विद्वत संगोष्ठी के दौरान मंच पर विराजमान गुरुदेव स्वामी रामनरेशाचार्य, दैनिक भास्कर, पटना के संपादक प्रमोद मुकेश, राजस्थान के पूर्व मंत्री नरपत सिंह राजवी, बीजेपी नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉ. संजय पासवान, वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, दिल्ली के अध्यक्ष रामबहादुर राय। इस मौके पर राजस्थान पत्रिका, जोधपुर के संपादक ज्ञानेश उपाध्याय द्वारा संकलित-संपादित पुस्तक- अबलौ नसानी, अब ना नसैंहों का लोकार्पण हुआ। संचालन डॉ. शास्त्री कोसलेन्द्र दास ने किया।⁠⁠⁠⁠

 क्या कहा महाराजश्री ने-
जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्य जी महाराज ने कहा कि संप्रदाय बुरे अर्थ में नहीं है। संप्रदाय ही है, जिसने गुरु-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाने का काम की है। अनादि काल से गुरु-शिष्य की परंपरा चली रही है। संप्रदाय से हटने के कारण ही समाज में समरसता की कमी आई है। संप्रदाय प्रतिष्ठित शब्द था। धर्म आदमी को नजदीक लाता है, दूर नहीं ले जाता। धनवान होने की इच्छा बुरी बात नहीं है, लेकिन गलत कार्य कर धनवान होना गलत है। राम भाव के माध्यम से समाज में समरसता आए यही हमारा प्रयास है। इसके लिए हर व्यक्ति को साथ मिल कर काम करना होगा। ये बातें उन्होंने शुक्रवार को लाला लाजपत राय भवन में चल रहे दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञ में कहीं। अवसर था सामाजिक समरसता और स्वामी नरेशाचार्य जी महाराज विषय पर गोष्ठी का। इसके पहले महाराज जी के प्रवचन पुस्तिका अबलौं नसानी अब नसैहौं का लोकार्पण किया। अतिथियों का अभिनंदन स्वामी रामानंदाचार्य रामनरेशाचार्य जी महाराज द्वारा किया गया।

अबधर्म की सत्ता को स्वीकार किया जा रहा है : रामबहादुर राय

 सामाजिकसमरसता और स्वामी नरेशाचार्य जी महाराज विषय पर आयोजित गोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने कहा कि असहज और अस्वाभाविक को ही जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मान लिया गया। इसे छोड़ना होगा तभी सामाजिक समरसता आएगी। समरसता लाना चाहते हैं, तो एक मंत्र गांठ बांध लें। आदर का मूल्य बदलना होगा। अहंकार ही समरसता को तोड़ता है। महत्वाकांक्षा भी समरसता में बाधा है। महत्वाकांक्षा तब हानिकर होती है जब किसी को पछाड़ने में नैतिकता की हद पार कर देती है। आतंकवाद और गरीबी जब तक है सामाजिक समरसता नहीं हो सकती। धर्म की सत्ता को अब स्वीकार किया जा रहा है। पिछली सदी में धर्म को अफीम माना जाता था। लेकिन अब संयुक्त राष्ट्र भी इसे स्वीकार कर रहा है कि धर्म की सत्ता को स्थापित करने में कैसे योगदान दें। लोकतंत्र भारत की प्राणवायु है। लोकतंत्र यानी विविधता। यह सिर्फ शासन प्रणाली ही नहीं, जीवन शैली भी है।

समानता से बना शब्द है समरसता - संजय पासवान

पूर्वकेंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने समरसता को परिभाषित करते हुए कहा कि समरसता समानता से बना शब्द है। समरसता में स- समानता है, म-ममता, र-रमण, स-सामंजस्य और त- तारतम्यता है। सब एक साथ मिलती है, तो समरसता बनता है। समरसता के सभी घटकों को जोड़ना होगा। वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश उपाध्याय ने कहा कि प्रवचन पुस्तिका में राम और रावण में भेद को भी बताया गया है। राजस्थान के पूर्व मंत्री नरपत सिंह राजवी ने कहा कि ऐसी राजनीति भी कोई काम की नहीं जिसमें सिद्धांत के विपरीत काम करें। दैनिक भास्कर के संपादक प्रमोद मुकेश ने कहा कि सामाजिक समरसता से ही देश का विकास होगा। आचार्य के भाव और आंदोलन पूरे विश्व में फैले और सामाजिक समरसता साकार हो।
 

सामाजिक समरसता और स्वामी रामनरेशाचार्य विषयक संगोष्ठी में वक्ताओं ने अपने विचार रखते हुए स्वामी जी के कार्यों की भूरी-भूरी प्रशंसा की।

बीजेपी सांसद आर के सिन्हा ने लिया महाराजश्री से आशीर्वचन

 पटना में चल रहे दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञ के दौरान पिछले 30 अगस्त, 2016 को   बीजेपी के राज्यसभा सांसद और बहुभाषी समाचार एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार सेवा के संरक्षक, सिक्य़ूरिटी कंपनी एसआईएस के संस्थापक श्री आर के सिन्हा ने महाराजश्री का दर्शन किया। चित्र में साथ दिख रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार पदमश्री रामबहादुर राय