Wednesday, November 9, 2016

कार्तिक पूर्णिमा स्नान और काशी की देवदीपावली


DevDeepawali at Panchganga ghat, Kashi
* स्वामी पद्मनाभम
कार्तिक पूर्णिमा को कार्तिकी भी कहते हैं। कार्तिकी को ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्यने महापुनीत पर्व प्रमाणित किया है। इस दिन अगर भरणी या कृतिका नक्षत्र पड़े, तो स्नान का विशेष फल मिलता है। इस दिन कृतिका नक्षत्र हो तो यह महाकार्तिकी होती है, भरणी हो तो विशेष स्नान पर्व का फल देती है और यदि रोहिणी हो तो इसका फल और भी बढ़ जाता है। 
इस बार यानि साल 2016 में यह कार्तिक पूर्णिमा १४ नवम्बर, सोमवार को संध्या ४:२७ बजे तक भरणी नक्षत्र, तदोपरान्त कृतिका नक्षत्र एवं विशाखाका सूर्य है। कार्तिक पूर्णिमा को कृतिका नक्षत्र का योग होनेसे यह (महाकार्तिकी) अतिशय पुण्यदायी हो गयी है। यथा- " आग्नेयं तु यदा ऋक्षं कार्तिक्यां भवति क्वचित्। महती सा तिथिर्ज्ञेया स्नानदानेषु चोत्तमा "-॥यमस्मृति॥
कहा जाता है कि इस योग में जो कार्तिकेयका दर्शन करता है वो सात जन्म तक धनाढ्य और वेद-पारग ब्राह्मण होता है। यथा-
"कार्तिक्यां कृत्तिकायोगे यः कुर्यात् स्वामिदर्शन्म्। सप्त जन्म भवेद् विप्रो धनाढ्यो वेदपारगः" ॥ काशीखंड॥

साथ ही साथ यह द्रष्टव्य है कि सूर्य विशाखा नक्षत्र पर (६ नवम्बर प्रातः ०७:३२ बजे से) हैं अतः पद्मक योग की भी सृष्टि हो रही है, जो पुष्कर तीर्थ में दुर्लभ माना गया है। यथा-
"विशाखासु यदा भानुः कित्तिकासु च चन्द्रमाः। स योगः पद्मको नाम पुष्करे त्वतिदुर्लभे"॥ पद्मपुराण॥

देव दीपावली की पौराणिक पृष्ठभूमि-
देवदीपावली की पृष्ठभूमि पौराणिक कथाओं से परिपूर्ण है। एक कथा के अनुसार भगवान शंकर ने सभी को उत्पीडि़त करने वाले राक्षस त्रिपुरासुर का वध देवताओं की प्रार्थना पर किया, जिसके उल्लास में देवताओं ने दीपावली मनाई, जिसे आगे चलकर देव दीपावली के रूप में मान्यता मिली। भार्गवार्चन दीपिकामें लिखा है-
कीटाः पतंगा मशकाश्च वृक्षा जले स्थले ये विचरन्ति जीवाः।
दृष्ट्वा प्रदीपं न च जन्मभागिनो भवन्ति नित्यं श्वपचा हि विप्राः॥

पौर्णमास्यां तु सन्ध्यायां कर्तव्यस्त्रिपुरोत्सवः। दद्यात् पूर्वोक्त मन्त्रेण सुदीपांश्च सुरालये॥भविष्य.॥
 यह भी मान्यता है कि इस दिन चन्द्रोदय के समय शिवा, सम्भूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा (इन ६ कृत्तिकाओं) के पूजन से शिवजी की प्रसन्नता प्राप्त होती है और गंगा-स्नान से पूरे वर्ष गंगा-स्नानका लाभ मिलता है। फलतः काशी के घाटों पर ३३ कोटि देवताओं द्वारा भगवान् विष्णु का आराधन किया जाता है और फिर देव दीपावली मनायी जाती है।
एक अन्य कथानक के अनुसार राजर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से त्रिशंकु को स्वर्ग पहुंचा दिया। देवतागण इससे उद्विग्न हो गए और त्रिशंकु को देवताओं ने स्वर्ग से भगा दिया। शापग्रस्त त्रिशंकु अधर में लटके रहे। स्वर्ग से निष्कासित त्रिशंकु को देखकर क्षुब्ध विश्वामित्र ने पृथ्वी-स्वर्ग आदि से मुक्त एक नई समूची सृष्टि की ही अपने तपोबल से रचना प्रारंभ कर दी यथा- कुश, मिट्टी, ऊँट, बकरी-भेड़, नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा आदि। इसी क्रम में विश्वामित्र ने वर्तमान ब्रह्मा-विष्णु-महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण फूंकना आरंभ किया। सारी सृष्टि हिल उठी। हर ओर हाहाकार मच गया। हाहाकार के बीच देवताओं ने राजर्षि विश्वामित्र की अभ्यर्थना की ,जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने नई सृष्टि की रचना का अपना संकल्प वापस ले लिया। देवताओं और ऋषि-मुनियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल सभी जगह इस अवसर पर दीपावली मनाई गई। यही अवसर अब देवदीपावली के रूप में विख्यात है।
इसी तिथिमें सायंकाल विष्णुक्का मत्स्यावतार हुआ है:-
"वरान् दत्वा यतो विष्णुर्मत्स्यरूपोऽभवत् ततः।
तस्यां दत्तंहुतं जप्तं तदक्षय्यफलं स्मृतम् "॥प.पु. कार्तिक माहात्म्य॥

शरद् ऋतु को भगवान की महारासलीला का काल माना गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार शरद् पूर्णिमा की चाँदनी में श्रीकृष्ण का महारास संपन्न हुआ था। उसी का द्योतक यह आकाशदीप माना जाता है। दीपक पवित्रता और शुचिताका साक्षी माना गया है और इसी कारण से प्रत्येक पूजा कर्ममें प्रथमतः कर्म दीपक जलाया जाता है। अतः आकाशदीपदान निम्नलिखित मन्त्रोंसे करते हैं-
 दामोदराय विश्वाय विश्वरूपधराय च। नमस्कृत्वा प्रदास्यामि व्योमदीपं हरिप्रियम्॥

 भगवान् विष्णु, वामनावतारके पश्चात्, बलिके पाससे लौटकर अपने निवासस्थान वैकुण्ठको पधारे थे अतः देवताओंने प्रसन्नताके दीपक जलाये। उसी की स्मृतिमें आकाशदीपदान कर देवदीपावली मनायी जाती है।
इसी पृष्ठभूमि में शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होने वाली दीपदान की परंपरा आकाशदीपों के माध्यम से काशी में अनूठे सांस्कृतिक वातावरण का द्योतक है। गंगा के किनारे घाटों पर और मंदिरों, भवनों की छतों पर आकाश की ओर उठती दीपों की लौ यानी आकाशदीप के माध्यम से देवाराधन और पितरों की अभ्यर्थना तथा मुक्ति-कामना की यह बनारसी पद्धति है।
शंकराचार्य की प्रेरणा से प्रारंभ होने वाला यह दीप-महोत्सव पहले केवल पंचगंगा (गंगा, सरस्‍वती, धुपापापा, यमुना और किरना के संगम)  की शोभा थी। आगे चलकर काशी के सभी घाटों की नयनाभिराम छवि का यह पावन अवसर बन गया।
परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम-देव दीपावली- धर्मपरायण महारानी अहिल्याबाई होलकर के प्रयत्नों से भी जुड़ा है। उन्होंने ही प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना खूबसूरत 'हजारा दीपस्तंभ’  स्थापित किया था, जो इस परंपरा का साक्षी है। अब जो देवदीपावली प्रचलन में है, उसकी शुरुआत दो दशक पूर्व यहीं से हुई थी। पंचगंगा का यह 'हजारा दीपस्तंभ' देव दीपावली के दिन 1001 से अधिक दीपों की लौ से जगमगा उठता है और अभूतपूर्व दृश्य की सृष्टि करता है।

 इस विस्मयकारी दृश्य की संकल्पना की पृष्ठभूमि में पूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डॉ. विभूतिनारायण सिंह की प्रेरणा उल्लेखनीय थी। बाद में श्रीमठ पीठाधीश्वर जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी ने इस संकल्प को भव्य आयाम प्रदान किया।
हरिहरक्षेत्र का मेला-
कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान के बाद शुरू होता है एक मेला जो बिहार की राजधानी पटना से लगभग 25 किमी तथा वैशाली जिले के मुख्यालय हाजीपुर से 3 किलोमीटर दूर छपरा, जिले के सोनपुर में गंडक और गंगा के संगम तट लगता है। सोनपुर मेले को  विश्व का सबसे बडा पशु मेला माना जाता है। मेलों से जुडे तमाम आयोजन यहां होते ही हैं। यहां हाथियों व घोडों की खरीद हमेशा से सुर्खियों में रहती है। पहले यह मेला हाजीपुर में होता था। सिर्फ हरिहरनाथ की पूजा सोनपुर में होती थी, लेकिन बाद में मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश से मेला भी सोनपुर में ही लगने लगा।


डुमरी स्थित श्रीमठ की "रामानन्द वाटिका" में आंवला पूजनोत्सव

आंवला पूजन करते Swami Ramnareshacharya

काशी, भारतीय संस्कृति की संवाहिका है और  पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ, उसे दिव्यता प्रदान करने का पवित्र स्थल है । पवित्र कार्तिक मास इन दोनों को प्रकाशित कर देता है । इसे माधव मास भी कहते हैं । माधव साक्षात विष्णु ही हैं। अतः पंचगंगा के माहात्म्य को परखकर रामावतार स्वामी रामानन्दाचार्य ने इसी पंचगंगा तट पर विष्णु स्वरुप श्रीराम की आराधना की थी । अतः यहां कार्तिक में स्नान, दान और पूजा, आराधना करना विशेष फल का प्रदाता होता है।
Swami Ramnareshacharya

अक्षय नवमी पर आँवला के वृक्ष के पूजन की सदियों पुरानी परंपरा है। इस दिन आंवला पूजन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण होता है कि इस दिन सभी देवी- देवता तीर्थ सद्प्रवत्तियाँ आँवला में ही निहित हो जाती हैं । कार्तिक मास के दौरान ऐसी अनेक धार्मिक प्रवृतियों का समायोजन गंगा तट पर पंचगंगा घाट पर सम्पन्न होते हैं।

श्रीसम्प्रदाय और श्रीमठ के वर्तमानाचार्य जगदगुरु रामानन्दचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज ने गंगा पार डुमरी में स्थित रामानंद वाटिका के आंवला के बाग में पूर्ण वैदिक रीति से पूजन किया। वेद मंत्रों से आचार्य श्रीवल्लभ पाठक जी नेतृत्व में ये सारे कार्य सम्पन्न हुए। देश- विदेश से आये भक्तों ने मठ की गोशाला में पूजन किया ।

पूजनोपरांत आचार्यश्री ने अपने प्रवचन में कहा कि आज का दिन महत्त्वपूर्ण एवं अक्षय पुण्य देने वाला है। सभी अलौकिक शक्तियां आज आंवला में ही समाहित होती हैं।  यह अमृत फल है जो कई पुण्यों का प्रदाता है। पर्यावरण की आधुनिक चेतना का सजग प्रहरी है। अतः ज्ञान के साथ आँवला  विज्ञान का भी सूचक है । इससे शुद्ध पर्यावरण की चेतना भी प्राप्त होती है।



अन्ततः महा आरती, विशाल भंडारा एवं संगीत का आयोजन भी हुआ । संगीत में श्री अशोक झा गायन पर रहे थे। तबले पर सागर गुजराती ने संगत किया। मिथिला से आये संगीतज्ञों ने  भी साथ दिया। आयोजन में  डुमरी ग्राम निवासी हजारों भक्तो ने प्रसाद ग्रहण किया। पूरा आयोजन रामानन्द आध्यत्मिक मंडल, पंजाब की  ओर से किया गया था।

कार्यक्रम में  विभिन्न प्रान्तों से पधारे हुये भक्तों की गरिमामयी उपस्थिति रही। वाराणसी विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष प्रकाशचंद्र श्रीवास्तव जी सपत्नीक पधारे। जोधपुर से हनुमान जी , इंदौर  से श्रीमती प्रेमलता जादोन,  वाराणसी के  अमूल्य शर्मा, अरुण शर्मा, रमेश अग्रवाल ,डॉ. राजेश्वराचार्य , हीरालाल अग्रवाल, डॉ.उदयप्रताप सिंह , मुकुंद लाल सेलट, अशोक कुमार,  श्रीरामजी सिंह रघुवंशी- इंदौर  आदि भक्तजन  उपस्थित रहे



Friday, October 28, 2016

Dhanvantari ऋषि धनवंतरी और धनतेरस के बारे में

जिस प्रकार देवी लक्ष्मी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थी, उसी प्रकार भगवान धनवन्तरि भी अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं, देवी लक्ष्मी हालांकि की धन देवी हैं, परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आपको स्वस्थ्य और लम्बी आयु भी चाहियें यही कारण है दीपावली की दीपमालायें दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही सजने लगती हें।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है, धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था, भगवान धन्वन्तरि चूंकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है।

कहीं-कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है, इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं, दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।

धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है, अगर सम्भव न हो तो कोइ बर्तन खरिदे, इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है, जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है, संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है,  जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ तथा सुखी है, और वही सबसे बड़ा धनवान है।

भगवान धन्वन्तरि जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें, धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है, इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था, दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।

ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा, राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े, दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।

विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे, जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे, उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा
परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा।

यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की, हे यमराज! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाये, दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले, हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है, इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है, यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं, धन्वन्तरि देवताओं के चिकित्सक हैं, और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं, इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्व पूर्ण होता है।

धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है, कि एक बार यमराज ने यमदूतों से पूछा कि प्राणियों को मृत्यु की गोद में सुलाते समय तुम्हारे मन में कभी दया का भाव नहीं आता क्या, दूतों ने यमदेवता के भय से पहले तो कहा कि वह अपना कर्तव्य निभाते है, और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं।

परंतु जब यमदेवता ने दूतों के मन का भय दूर कर दिया, तो उन्होंने कहा कि एक बार राजा हेमा के ब्रह्मचारी पुत्र का प्राण लेते समय उसकी नवविवाहिता पत्नी का विलाप सुनकर हमारा हृदय भी पसीज गया, लेकिन विधि के विधान के अनुसार हम चाह कर भी कुछ न कर सके, एक दूत ने बातों ही बातों में तब यमराज से प्रश्न किया कि अकाल मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या?

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है, उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है, इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगन मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं, इस दिन लोग यम देवता के नाम पर व्रत भी रखते हैं।

धनतेरस के दिन दीप जलाककर भगवान धन्वन्तरि की पूजा करें, भगवान धन्वन्तरी से स्वास्थ और सेहतमंद बनाये रखने हेतु प्रार्थना करें, चांदी का कोई बर्तन या लक्ष्मी गणेश अंकित चांदी का सिक्का खरीदें, नया बर्तन खरीदे जिसमें दीपावली की रात भगवान श्री गणेशजी व देवी लक्ष्मीजी के लिए भोग चढ़ायें।
Dhanwantri

Monday, October 24, 2016

महाराज श्री के सान्निध्य में मना कुंवर रेवती रमण सिंह का अमृत महोत्सव

KUNWAR REWATI RAMAN BIRTHDAY
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद कुंवर रेवती रमण सिंह का अमृत महोत्सव लखनऊ में रविवार दिनांक 23-10-2016  को धूमधाम से मनाया गया। जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज श्री के सान्निध्य में आयोजित समारोह में सिक्किम के पूर्व राज्यपाल वाल्मीकि प्रसाद सिंह,  उच्च न्यायालय, लखनऊ जस्टिस एपी शाही, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव एवं प्रवक्ता- राजीव राय और पूर्व आईपीएस अधिकारी और पटना महावीर मंदिर के संस्थापक सचिव किशोर कुणाल सहित बड़ी संख्या में गणमान्य लोग मौजूद रहे। मंच पर महाराज श्री के बगल में बैठे हैं कुंवर साहब।

Wednesday, October 19, 2016

Karva Chauth Vart करवा चौथ व्रत की कथा

karva Chauth Image
करवा चौथ
शास्त्रों के अनुसार यह व्रत कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन करना चाहिए। पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना की जाती है। करवाचौथ में भी संकष्टीगणेश चतुर्थी की तरह दिन भर उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अ‌र्घ्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है। वर्तमान समय में करवाचौथ व्रतोत्सव ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही मनाती हैं लेकिन अधिकतर स्त्रियां निराहार रहकर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करती हैं।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं।

यह व्रत 12 वर्ष तक अथवा 16 वर्ष तक लगातार हर वर्ष किया जाता है। अवधि पूरी होने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन (उपसंहार) किया जाता है। जो सुहागिन स्त्रियाँ आजीवन रखना चाहें वे जीवनभर इस व्रत को कर सकती हैं। इस व्रत के समान सौभाग्यदायक व्रत अन्य कोई दूसरा नहीं है। अतः सुहागिन स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षार्थ इस व्रत का सतत पालन करें।

⚜ करवां चौथ की कथा :-
एक बार पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर गए। इधर द्रोपदी बहुत परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। कृष्ण भगवान ने कहा- बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था।

पूजन कर चंद्रमा को अर्घ्‍य देकर फिर भोजन ग्रहण किया जाता है। सोने, चाँदी या मिट्टी के करवे का आपस में आदान-प्रदान किया जाता है, जो आपसी प्रेम-भाव को बढ़ाता है। पूजन करने के बाद महिलाएँ अपने सास-ससुर एवं बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेती हैं।

तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। प्राचीनकाल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लड़के एवं एक गुणवती लड़की थी।

एक बार लड़की मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी।

भाइयों से न रहा गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी- देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया।

भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। अब वह दुःखी हो विलाप करने लगी, तभी वहाँ से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दुःख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दुःख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलिए यह कष्ट मिला।

अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुनः सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत करना चाहिए। द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए। तभी से हिन्दू महिलाएँ अपने अखंड सुहाग के लिए करवा चौथ व्रत करती हैं।
चौथ :-

Monday, October 17, 2016

ब्रह्म मुहूर्त में उठने की परंपरा और उसके लाभ



रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। सूर्योदय से चार घड़ी (लगभग डेढ़ घण्टे) पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में ही जग जाना चाहिये। इस समय सोना शास्त्र निषिद्ध है।

ब्रह्म का मतलब परम तत्व या परमात्मा। मुहूर्त यानी अनुकूल समय। रात्रि का अंतिम प्रहर अर्थात प्रात: 4 से 5.30 बजे का समय ब्रह्म मुहूर्त कहा गया है।

“ब्रह्ममुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी”।
(ब्रह्ममुहूर्त की निद्रा पुण्य का नाश करने वाली होती है।)

सिख धर्म में इस समय के लिए बेहद सुन्दर नाम है--"अमृत वेला", जिसके द्वारा इस समय का महत्व स्वयं ही साबित हो जाता है। ईश्वर भक्ति के लिए यह महत्व स्वयं ही साबित हो जाता है। ईवर भक्ति के लिए यह सर्वश्रेष्ठ समय है। इस समय उठने से मनुष्य को सौंदर्य, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि की प्राप्ति होती है। उसका मन शांत और तन पवित्र होता है।

ब्रह्म मुहूर्त में उठना हमारे जीवन के लिए बहुत लाभकारी है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ होता है और दिनभर स्फूर्ति बनी रहती है। स्वस्थ रहने और सफल होने का यह ऐसा फार्मूला है जिसमें खर्च कुछ नहीं होता। केवल आलस्य छोड़ने की जरूरत है।

प्रात: काल उठने के पश्चात हस्त-दर्शन का भी शास्त्रीय विधान है ।

करागे वसति लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती ।
कर मूले स्थितों ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम् ॥
भगवान के स्मरण के बाद दही, घी, आईना, सफेद सरसों, बैल, फूलमाला के दर्शन भी इस काल में बहुत पुण्य देते हैं।

पौराणिक महत्व -- वाल्मीकि रामायण के मुताबिक माता सीता को ढूंढते हुए श्रीहनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी।

शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है--
वर्णं कीर्तिं मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विदन्ति।
ब्राह्मे मुहूर्ते संजाग्रच्छि वा पंकज यथा॥
अर्थात- ब्रह्म मुहूर्त में उठने से व्यक्ति को सुंदरता, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य, आयु आदि की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से शरीर कमल की तरह सुंदर हो जाता हे।

ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति :--
ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति का गहरा नाता है। इस समय में पशु-पक्षी जाग जाते हैं। उनका मधुर कलरव शुरू हो जाता है। कमल का फूल भी खिल उठता है। मुर्गे बांग देने लगते हैं। एक तरह से प्रकृति भी ब्रह्म मुहूर्त में चैतन्य हो जाती है। यह प्रतीक है उठने, जागने का। प्रकृति हमें संदेश देती है ब्रह्म मुहूर्त में उठने के लिए।

इसलिए मिलती है सफलता व समृद्धि-
आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल दिए जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है।

ब्रह्ममुहूर्त के धार्मिक, पौराणिक व व्यावहारिक पहलुओं और लाभ को जानकर हर रोज इस शुभ घड़ी में जागना शुरू करें तो बेहतर नतीजे मिलेंगे।

ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाला व्यक्ति सफल, सुखी और समृद्ध होता है, क्यों? क्योंकि जल्दी उठने से दिनभर के कार्यों और योजनाओं को बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। इसलिए न केवल जीवन सफल होता है। शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने वाला हर व्यक्ति सुखी और समृद्ध हो सकता है। कारण वह जो काम करता है उसमें उसकी प्रगति होती है। विद्यार्थी परीक्षा में सफल रहता है। जॉब (नौकरी) करने वाले से बॉस खुश रहता है। बिजनेसमैन अच्छी कमाई कर सकता है। बीमार आदमी की आय तो प्रभावित होती ही है, उल्टे खर्च बढऩे लगता है। सफलता उसी के कदम चूमती है जो समय का सदुपयोग करे और स्वस्थ रहे। अत: स्वस्थ और सफल रहना है तो ब्रह्म मुहूर्त में उठें।

वेदों में भी ब्रह्म मुहूर्त में उठने का महत्व और उससे होने वाले लाभ का उल्लेख किया गया है।

प्रातारत्नं प्रातरिष्वा दधाति तं चिकित्वा प्रतिगृह्यनिधत्तो।
तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचेत सुवीर:॥ - ऋग्वेद-1/125/1
अर्थात- सुबह सूर्य उदय होने से पहले उठने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इसीलिए बुद्धिमान लोग इस समय को व्यर्थ नहीं गंवाते। सुबह जल्दी उठने वाला व्यक्ति स्वस्थ, सुखी, ताकतवाला और दीर्घायु होता है।
यद्य सूर उदितोऽनागा मित्रोऽर्यमा। सुवाति सविता भग:॥ - सामवेद-35

अर्थात- व्यक्ति को सुबह सूर्योदय से पहले शौच व स्नान कर लेना चाहिए। इसके बाद भगवान की पूजा-अर्चना करना चाहिए। इस समय की शुद्ध व निर्मल हवा से स्वास्थ्य और संपत्ति की वृद्धि होती है।
उद्यन्त्सूर्यं इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आददे।

अथर्ववेद- 7/16/२
अर्थात- सूरज उगने के बाद भी जो नहीं उठते या जागते उनका तेज खत्म हो जाता है।

व्यावहारिक महत्व - व्यावहारिक रूप से अच्छी सेहत, ताजगी और ऊर्जा पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त बेहतर समय है। क्योंकि रात की नींद के बाद पिछले दिन की शारीरिक और मानसिक थकान उतर जाने पर दिमाग शांत और स्थिर रहता है। वातावरण और हवा भी स्वच्छ होती है। ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं।

जैविक घड़ी पर आधारित शरीर की दिनचर्या :--

प्रातः 3 से 5 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से फेफड़ों में होती है। थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना । इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है। उन्हें शुद्ध वायु (आक्सीजन) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है, और सोते रहने वालों का जीवन निस्तेज हो जाता है ।

प्रातः 5 से 7 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से आंत में होती है। प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग एवं स्नान का लेना चाहिए । सुबह 7 के बाद जो मल-त्याग करते है उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं। इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।

प्रातः 7 से 9 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से आमाशय में होती है। यह समय भोजन के लिए उपर्युक्त है । इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं। भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी (अनुकूलता अनुसार) घूँट-घूँट पिये।

प्रातः 11 से 1 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से हृदय में होती है।

दोपहर 12 बजे के आस–पास मध्याह्न – संध्या (आराम) करने की हमारी संस्कृति में विधान है। इसी लिए भोजन वर्जित है । इस समय तरल पदार्थ ले सकते है। जैसे मट्ठा पी सकते है। दही खा सकते है ।

दोपहर 1 से 3 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से छोटी आंत में होती है। इसका कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर धकेलना है। भोजन के बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए । इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार-रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है ।

दोपहर 3 से 5 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से मूत्राशय में होती है । 2-4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र-त्याग की प्रवृति होती है।

शाम 5 से 7 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है । इस समय हल्का भोजन कर लेना चाहिए । शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्याकाल) भोजन न करे। शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते है । देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभवगम्य है।

रात्री 7 से 9 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से मस्तिष्क में होती है । इस समय मस्तिष्क विशेष रूप से सक्रिय रहता है । अतः प्रातःकाल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है । आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टी हुई है।

रात्री 9 से 11 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है। इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरूरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है। इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है । इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है । यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं। इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।

रात्री 11 से 1 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से पित्ताशय में होती है । इस समय का जागरण पित्त-विकार, अनिद्रा , नेत्ररोग उत्पन्न करता है व बुढ़ापा जल्दी लाता है । इस समय नई कोशिकाएं बनती है ।

रात्री 1 से 3 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से लीवर में होती है । अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है। इस समय का जागरण यकृत (लीवर) व पाचन-तंत्र को बिगाड़ देता है । इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएं मंद होती हैं। अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।

नोट :-ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखे, जिससे ऊपर बताए भोजन के समय में खुलकर भूख लगे। जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें। इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। कुर्सी पर बैठकर भोजन करने में पाचनशक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहींवत् हो जाती है। इसलिए ʹबुफे डिनरʹ से बचना चाहिए।

पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें, अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।

शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें। इस संदर्भ में हुए शोध चौंकाने वाले हैं। देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर भयंकर स्वास्थ्य-संबंधी हानियाँ होती हैं। अँधेरे में सोने से यह जैविक घड़ी ठीक ढंग से चलती है।

आजकल पाये जाने वाले अधिकांश रोगों का कारण अस्त-व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार ही है। हम अपनी दिनचर्या शरीर की जैविक घड़ी के अनुरूप बनाये रखें तो शरीर के विभिन्न अंगों की सक्रियता का हमें अनायास ही लाभ मिलेगा। इस प्रकार थोड़ी-सी सजगता हमें स्वस्थ जीवन की प्राप्ति करा देगी.
 सब सुखी और निरोगी हों !

श्रीमठ संगीत महोत्सव-2016 अंतिम निशा समापन समारोह का प्रेस कवरेज

Srimath Sangeet Mahotsava-2016






श्रीमठ संगीत महोत्सव-2016 की दूसरी निशा ( शरद पूर्णिया) प्रेस की नजर में







श्रीमठ संगीत महोत्सव के दूसरे दिन बही संगीत सरिता
----------------------------------------------------------------
श्रीमठ संगीत महोत्सव-2916
अमृत वर्षण के साथ संगीत सरिता को प्रवाहित करती श्रीमठ संगीत(कोजागरी) महोत्सव की द्वितीय निशा का शुभारंभ वेद मंत्रों के गंभीर नाद एवं दंडी स्वामी अनंतानंद जी महाराज के करकमलों से दीप प्रज्ज्वलन से हुआ । कार्यक्रम की प्रथम प्रस्तुति श्री  शान्तनु चतुर्वेदी के एकल तबला की रही । शान्तनु जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में वरिष्ठ शोध अध्येता हैं। इन्होंने अपनी प्रस्तुति में तीन ताल में उठान , ठेके की चलन , कायदा रैला गत फर्द , कुछ बनारस घराने की पारम्परिक टुकड़े प्रस्तुत कर कार्यक्रम का मान बढ़ाया । उनके साथ श्री आनन्द किशोर मिश्र जी ने हारमोनियम पर संगत की ।

कार्यक्रम की द्वितीय प्रस्तुति में देवास म.प्र से पधारी कुमार गंधर्व की सुपुत्री सुश्री कलापिनी कोमकली ने राग "नंद " से शुरुआत कर एक ताल में विलम्बित ख्याल में "गोविन्द वीन बजाईं" , मध्य लय की रचना "अजहूंन न आये" , श्याम द्रुत में "राजन अब तो आजा" इसके बाद राग धन बसन्ती में "दीप की ज्योति जरे" प्रस्तुत की , राग सोहनी में "रंग न डारो श्याम जी"  से अपनी प्रस्तुति का समापन कबीर  से किया।

इनके साथ तबले पर विनोद मिश्र और हारमोनियम पर अशोक झा ने संगत की।इसके बाद कार्यक्रम की अंतिम प्रस्तुति में अहमदाबाद से पधारी विदुषी  मंजू मेहता ने अपने सितार की शुरुआत भारत रत्न पं रविशंकर की रचित राग चारुकॉन्स में अलाप, जोड़ , झाला से की। तत्पश्चात विलम्बित गत रूपक में एवम द्रुत में एक ताल और तीन ताल में प्रस्तुति दी। अपने कार्यक्रम का समापन उन्होंने राग पीलू से किया
तबले पर संगत पं.पुरण महाराज ने की। पूरण महाराज वाराणसी घराने के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ हैं ।
कार्यक्रम में स्वर सारस्वत साधना में तल्लीन सुप्रसिद्ध कलाकारों का सम्मान प्रो. प्रेमनारायण सिंह, वाराणसी, अभिनंदन चौधरी,  बिहार , अम्बरीश राय आदि ने किया ।
श्रीमठ काशी पीठाधीश्वर जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य के सान्निध्य में आयोजित समस्त कार्यक्रमों का सफल संचालन संयोजक श्री अमूल्य शर्मा जी ने किया ।

कार्यक्रम में वाराणसी विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष श्रीप्रकाश चंद्र श्रीवास्तव , श्रीमती सुचित्रा गुप्ता जी , श्री शांति रमण जी सपत्नीक, अशोक गुप्ता,विनय जैन , श्याम कृष्ण अग्रवाल,अरुण शर्मा, रमण शंकर पंड्या (रम्मू भैया ) ,पं. कामेश्वरनाथ मिश्र , मुकुंद लाल सैलट, अमित श्रीवास्तव आदि शहर के गणमान्य महानुभावों की उपस्थिति रही ।

Saturday, October 15, 2016

श्रीमठ संगीत महोत्सव-2016 का उदघाटन समारोह- प्रेस की नजर में

Swami Ramnareshacharya



Swami Ramnareshacharya 

श्रीमठ संगीत महोत्सव -2016 के पहले दिन सजी सुर और साज की महफिल

Srimath Sangeet Mahotsava-2016
वाराणसी में त्रिदिवसीय श्रीमठ संगीत महोत्सव -2016 के पहले दिन यानि 14 अक्टूबर को हुए कार्यक्रम का समाचार पत्रों में प्रकाशित रिपोर्ट

Sunday, October 9, 2016

प्रेरक कथा- जो जपता है राम का नाम, राम जपते हैं उसका नाम

रामनाम


प्रसिद्ध संत शिवानंद निरंतर राम का नाम जपते रहते थे। एक दिन वे जहाज पर यात्रा के दौरान रात में गहरी नींद में सो रहे थे। आधी रात को कुछ लोग उठने लगे और आपस में बात करने लगे कि ये राम नाम कौन जप रहा है। लोगों ने उस विराट, लेकिन शांतिमय आवाज की खोज की और खोजते-खोजते वे शिवानंद के पास पहुँच गए।

सभी को यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ की शिवानंद तो गहरी नींद में सो रहे है, लेकिन उनके भीतर से यह आवाज कैसे निकल रही है। उन्होंने शिवानंद को झकझोर कर उठाया तभी अचानक आवाज बंद हो गई। लोगों ने शिवानंद को कहा आपके भीतर से राम नाम की आवाज निकल रही थी इसका राज क्या है। उन्होंने कहा मैं भी उस आवाज को सुनता रहता हूँ। पहले तो जपना पड़ता था राम का नाम अब नहीं। बोलो श्रीराम।

‘राम’ यह शब्द दिखने में जितना सुंदर है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है इसका उच्चारण। राम कहने मात्र से शरीर और मन में अलग ही तरह की प्रतिक्रिया होती है जो हमें आत्मिक शांति देती है। हजारों संत औरमहात्माओं ने राम का नाम जपते-जपते मोक्ष को पा लिया है।ईश्वर-नाम की महिमा साक्षात ईश्वर से भी महान है। समर्थ रामदास स्वामी ने ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ इस त्रयोदशाक्षरी मंत्र के तेरह करोड़ जाप किए और उन्हें भगवान श्रीराम के साक्षात दर्शन हुए। ईश्वर-नाम की महिमा अपरंपार है ,इस कलयुगमें राम नाम ही सुख शांति का मार्ग है और राम नाम ही इस जीवन रूपी सागर से पार उतार सकता है। क्योंकि श्वास कब पूरे हो जाएं यह कोई नहीं जानता। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सच्चे मन से राम नाम का जाप करना चाहिए। प्राचीन काल में सबरी,गिद्धव अजामिलका राम नाम ने ही उद्धार किया था। राम नाम के संकीर्तन बिना जीवन रूपी भवसागर से पार नहीं उतरा जा सकता।

कहते हैं कि कलयुग में सब कुछ महँगा है, लेकिन राम का नाम ही सस्ता है। सस्ता ही नहीं सभी रोग और शोक की एक ही दवा है राम। वर्तमान में ध्यान, तप, साधना और अटूट भक्ति करने से भी श्रेष्ठ राम का नाम जपना है। भागमभाग जिंदगी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, धोखे पर धोखे, माया और मोह आदि सभी के बीच मानवता जब हताश और निराश होकर आत्महत्या करने लगती है तब सिर्फ राम नाम का सहारा ही उसे बचा सकता है।

कहते हैं जो जपता है राम का नाम राम जपते हैं उसका नाम।

Monday, October 3, 2016

श्रीमठ संगीत महोत्सव-2016 का निमंत्रण कार्ड


Shrimath Sangeet Mahotsava-2016
वाराणसी में पिछले कई सालों से पावन कार्तिक मास के दौरान होने वाले श्रीमठ संगीत महोत्सव-2016 की तिथि नजदीक आते ही आमंत्रण पत्र भी प्रकाशित होकर आ गया। तीन दिवसीय इस सारस्वत अनुष्ठान के दौरान संगीत सरिता में डुबकी लगाने के लिए आप सब सादर आमंत्रित हैं।

Thursday, September 15, 2016

संत-श्रीमहंतों के बीच मंच पर विराजते स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज

सूरत में आयोजित शतमुख कोटि होमात्मक श्रीराम महायज्ञ के दौरान मंच पर विराजमान जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य

पटना चातुर्मास्य में समरस समाजके निर्माणमें संतों का योगदान विषयक संगोष्ठी

पटना चातुर्मास्य के दौरान हिन्दी दिवस पर संगोष्ठी का उदघाटन करते स्वामी रामनरेशाचार्य जी एवम् हिन्दी सेवी विद्वान

पटना में जारी दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञके सम्पादन के क्रम में हिन्दी दिवस यानि 14 सितंबर को एक विद्वत् गोष्ठी का समायोजन जगदगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज के सान्निध्य में सुसम्पन्न हुआ, जिसमें भीमराव अंबेडकर विवि. मुजफ्फरपुर के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रमोद कुमार सिंह, नालंदा खुला विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर रासबिहारी सिंह, और बिहार-झारखंड के पूर्व मुख्य सचिव श्री विजय शंकर दुबे और काशी से पधारे प्रो. अशोक कुमार सिंह की गरिमामयी उपस्थिति रही। पूरे कार्यक्रम के संयोजक थे प्रो. डॉ. श्रीकान्त सिंह, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, कॉलेज ऑफ कॉमर्स, पटना। 

  सबसे पहले अभिनंदनीय संत-साहित्यके मर्मज्ञ महानुभावों का संक्षिप्त परिचय डॉ. श्रीकान्त सिंह ने कराया। कार्यक्रम का शुभारंभ जगगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज एवं संत-साहित्यके मर्मज्ञ महानुभावोंके द्वारा सूर्य-साक्षी स्वरूप दीप-प्रज्वलनन सह परम प्रभु श्री सीतारामजी के माल्यार्पणके साथ  हुआ।


मंगलाचरणके पश्चात् काशी से पधारे प्रो. अशोक सिंह को आमंत्रित किया गया, जिन्होंने एक गीत -"सात खंड नवद्वीप विदित यह कलिमल हरनी गाथा...." के माध्यमसे आद्य जगदगुरु रामानन्दाचार्यजी की जीवन- गाथा से लेकर सम्प्रति जगदगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी तक की कृतिको अपनी रसमयी वाणी में प्रस्तुत किया । शीर्षक की व्याख्या करते हुये डॉ. श्रीकान्त सिंहने ’संत’ तथा ’समरसता’ को परिभाषित किया। 


पश्चात् प्रो. रास बिहारी प्रसाद सिंह, कुलपति नालंदा खुला वि.वि. ने कहा कि मैं साधु और संतमें भेद मानता हूँ। साधु समाजसे कम जुड़ा रहता है पर संत समाजसे जुड़कर उसका कल्याणकामी होते हैं।


  बिहार और झारखंड सरकार के मुख्य सचिव और नालंदा खुला विवि के पूर्व कुलपति
श्री विजय शंकर दुबे  कहा कि वर्तमान समाज की रक्षा केवल रामानन्द सम्प्रदाय का मूल मंत्र ’जाति पाँति पूछै नहीं कोई। हरिको भजै सो हरि का होई॥’ के द्वारा ही सम्भव है और यह मात्र संत-समाज और विशेषतः स्वामी रामनरेशाचार्यजी जैसे संत ही कर सकते हैं। कोई सरकार, प्रशासन या राजनीतिज्ञ नहीं कर सकता। कबीर भी संत थे तथा तुलसीदास भी संत थे, पर समाजके प्रति जो अवदान गोस्वामी तुलसीदासजी का है वह कबीर का नहीं है। उन्होंने कहा कि ’ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी’ नहीं पर यह ’ढोल, गंवार, सूद, पशु नारी’ है यह राजापुरवालों का है। सूदका अर्थ है- हिंसक।

अगले वक्ता के रूप में उदबोधन हुआ प्रो. प्रमोद कुमार सिंह, पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष,  मुजफ्फरपुर का। इन्होंने सर्वप्रथम बताया कि ’क्षुद्र’ शब्द ही ’शूद्र’ हो गया है। काव्य-शास्त्रमें जो वक्तव्य होता है वह कवि का नहीं वरन वक्ता का होता है। अतः ’ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी’ समुद्र का वक्तव्य है। अतः तुलसीदास को इससे लांक्षित नहीं किया जा सकता। 


संत तो निःश्रेयस की ओर ले जाता है। संत सम भाव हैं, समत्व है, समदर्शी होता है। समदर्शिताके बिना कोई संत नहीं हो सकता। जैसे सदना, जो स्वामी रामानन्दका शिष्य था।


आचार्य श्री स्वामी रामनरेशाचार्यजी ने अपने मंगलाशीर्वचन में सभी विद्वानों के भावों का समर्थन करते हुए समरसता को सहज भावसे समझाया। इसके पश्चात् स्वामी जी महाराज ने विद्वानों को साविधि स्वयं अभिषेक कर पुष्पमाला, शॉल, मिष्टान, मठ साहित्य और दक्षिणादिक द्वारा सम्मानित किया। अंत में संत साहित्य के विद्वान और काशी से पधारे प्रोफेसर डॉ. उदय प्रताप सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन किया।

Monday, September 12, 2016

प्रभु को अर्पित करने के बाद ग्रहण करें भोजन - जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य

पटना,11 सितंबर।

सात्विक पदार्थो को सात्विक मन से परम प्रभु के लिए ही पकाया जाना और उन्हें ही सबसे पहले श्रेष्ठ प्रेम एवं संयतमना होकर समर्पित किया जाना, तत्पश्चात् उनका प्रसाद उनके ही रूप में ग्रहण करना एक आराधना ही है। यह आराधना महाराधना हो जाती है जब भोग हो प्रभुका छप्पन भोग और प्रसादग्राही हो ऊंच-नीच, जाति-भेद, वर्ण-भेद आदि से रहित सर्वजन। यह विचार जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य ने राजधानी में चल रहे दिव्य चातुर्मास्य के दौरान रखे। 

पटना में समष्टि भंडारे का चित्र
राजधानी के लाला लाजपथ राय भवन में चल रहे कार्यक्रम में रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज  ने कहा कि वैसे तो वैष्णवाराधन एक चलन सा हो गया है, पर प्रसाद की महत्ता तो तब ही अक्षुण्ण रह पाती है जब भोग के संसाधन, उसका पाक, प्रभु को अर्पण, प्रसाद-वितरण तथा उसकी सम्प्राप्ति सब कुछ नियमानुकूल और विधिवत हो।

 दिव्य चातुर्मास्य महोत्सव महायज्ञ के दौरान रविवार को बैंक रोड के मुहाने पर मंगलमय छप्पन भोग का भंडारा का आयोजन किया गया। स्वामी जी ने इस अवसर पर कहा कि जितनी भी अच्छी-से अच्छी वस्तुएं होती हैं, उसे हम सम्यक मन से प्रभु को समर्पित करते हैं। सब उन्हीं का तो है। ’त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।’ यह केवल वाच्यात्मक नहीं भावनात्मक भी होनी चाहिये। तब प्रभु अपना सायुज्य देते हैं, यहां तक कि भोग में अपनी साम्यता भी दे देते हैं।

 प्रभु ऐसे समतावादी हैं कि जो भोग वे स्वयं लेते हैं अपने भक्तों को भी प्रदान कर देते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सम्यक रूप से भावभावित प्रेमरस संपृक्त अर्पण प्रभु का सायुज्य देते हुए भोग की साम्यता भी करवा डालती है। छप्पन भोगात्मक समष्टि भण्डारा का (वैष्णवाराधन) के समायोजन में सेवा-व्रति लोग मोह-ग्रस्त हो रहे थे, परन्तु जब आचार्यश्री ने यह समझाया कि यह तो प्रभु-कार्य है, इसमें आप तो केवल निमित्तमात्र हैं। गीता में कहा है- निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन। यह एक विराट महायज्ञ है, आप इसमें निमित्त बनें, शेष तो प्रभु स्वयं संभाल लेंगे। अजरुन का मोह नष्ट हुआ और कार्य में प्रवृत्त होने पर प्रभु-साक्षात्कार भी हुआ।

भगवत्प्रसाद का सेवन परम पुरुषार्थ यानि मोक्ष का साधन है- स्वामी रामनरेशाचार्य




पटना में समष्टि भंडारे का शुभारंभ करते स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज

पटना में चल रहे जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज, श्रीमठ,काशी के दिव्य चातुर्मास्य महोत्सव के दौरान बिस्कोमान भवन के सामने रविवार-11 सितंबर,2016 को विशाल सामूहिक भंडारे का आयोजन सुबह 10 बजे से रात 10 बजे तक किया गया। खास बात ये रही कि स्वामीजी ने अपने हाथों प्रसाद वितरित कर इसका शुभारंभ किया और दिन भर साधु-संतों के हाथों से आम जन ने प्रसाद पाया। इसके पहले भगवान का 56 प्रकार के व्यंजनों से भोग लगा, जो प्रसाद रुप में वितरित हुआ।

भक्तों और अभ्यागतों के बीच भंडारे का प्रसाद परोसते संत गण
भंडारे का महात्म्य-

वैदिक सनातन धर्म में भोजन केवल भूख मिटानेका ही साधन नहीं, अपितु वह परम कल्याणकामी विशिष्ट साधन है। उसकी प्रक्रिया यह है कि सात्विक पदार्थों को परम प्रभु के लिये ही पकाया जाय तथा उन्हें ही सबसे पहले श्रेष्ठ प्रेम एवं संयतमना होकर समर्पित किया जाय, तदन्तर उसका प्रसाद भगवान्‌ के रूप में ही ग्रहण किया जाय। यह भी एक आराधना ही है। जैसे संसारी-जन जिस किसी भी प्रकार से धन का संग्रह कर धनवान होना चाहते हैं, वैसे ही कल्याणकामी भी हर-किसी प्रकारसे परम प्रभु को अपने भीतर (अपने मनमें) ले जाना चाहता है।

 भगवदर्पण तथा उसका सेवन उसी प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। तभी तो गीता में कहा गया है कि जो लोग अपने लिये भोजन पकाते हैं, वे तो पाप को ही पकाते हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर उपासना-स्वरूप यज्ञादि को छोड़ने के लिये शास्त्रों ने मना किया। यज्ञादि के सम्पादन से उनका प्रसाद प्राप्त होगा तथा उनके माध्यम से बना हुआ मन ही वस्तुतः ज्ञान एवं भक्ति का श्रेष्ट उत्पादक होगा, जिसके माध्यम से व्यष्टि एवं समष्टि में राम-राज्य अवतरित होगा। जैसा-तैसा अन्न, वैसा ही पाक तथा वैसा ही भोजन एवं उससे बना मन तो कभी भी सही ज्ञान एवं भक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं। अतएव राक्षसी जीवन को ही देते हैं।
प्रभुराम को 56 भोग

इसी को ध्यान में रखकर दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञ के समापन की पूर्व संध्या पर रविवार, 11 सितंबर,2016 को प्रातः 10 बजे से रात्रि 10 बजे तक पटना गांधी मैदान से सटे बिस्कोमान भवन के सामने "परम मंगलमय छप्पन भोगात्मक समष्टि भण्डारा का (वैष्णवाराधन)" समायोजन किया गया। महाराज श्री ने एक दिन पहले ही भक्तों और आमजनों का आह्वान किया कि  आप सब सादर सप्रेम आमंत्रित हैं। पधारिये, प्रसाद ग्रहण कीजिये तथा सर्वश्रेष्ठ मानव जीवनको परम धन्यतासे मण्डित कीजिये। स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराज ने मोक्षकामियोंको सम्बोधित करते हुए लाला लाजपत राय स्मारक सभागारमें ये बातें कही। 


इस महायज्ञके समायोजक दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञ समिति बिहार है।

भंडारे के  मुख्य सेवाव्रती निम्नांकित मंगलमयी सेवैकनिष्ठ महानुभाव रहे-
१. श्री आर. के. सिन्हा, सदस्य राज्य सभा,  श्री विष्णु बिंदल- स्वस्तिक कोल कॉरपोरेशन, इन्दौर (मध्य प्रदेश), श्रीआर. पी. सिंह, कमलादित्य कन्स्ट्रक्शन, बोकारो। श्री सत्येन्द्र पाण्डेय एवं गीता पाण्डेय, पीएनबी,  आरा,  श्री सुरेन्द्र सिंह, पूर्व शिक्षक, फुलाड़ी (भोजपुर) , श्री वीरेन्द्र कुमार ’मुन्ना’ करवाँ, आरा।  श्री ब्रजेश सहाय, सामाजिक कार्यकर्त्ता, बक्सर।  श्री विनोद कुमार मंगलम्, पटना;  श्री नृपेन्द्र कुमार- पीएनबी, पटना, श्री आनन्द कौशिक- पीएनबी, पटना। श्री दयाशंकर उपाध्याय- पीएनबी, आरा। श्री प्रशान्त तिवारी, पी. एन. बी. आरा; अवध किशोर शर्मा, खजरेठा, खगरिया; श्रीमती अंजलि कुमारी, समाजसेविका, पटना, कुन्दन कुमार , पीएनबी,  सासाराम एवं श्री लक्ष्मण तिवारी- बरिसवन ,आरा।

Thursday, September 8, 2016

श्री गुरु गीता से जाने शिष्य धर्म

शिष्य धर्म को जानें-
शिष्य वह है जो नित्य गुरु मंत्र का जप उठते, बैठते, सोते जागते करता रहता है।

चाहे कितना ही कठिन एवं असंभव काम क्यो न सोपा जाए, शिष्य का मात्र कर्तव्य बिना किसी ना नुकर के उस काम में लग जाना चाहिए।

गुरु शिष्य की बाधाओं को अपने ऊपर लेते है, अतएव यह शिष्य का भी धर्म है की वह अपने गुरु की चिंताओं एवं परेशानियों को हटाने के लिए प्राणपण से जुटा रहे।

शिष्य का मात्र एक ही लक्ष्य होता है, और वह है, अपने ह्रदय में स्थायी रूप से गुरु को स्थापित करना।

और फिर ऐसा ही सौभाग्यशाली शिष्य आगे चलकर गुरु के ह्रदय में स्थायी रूप से स्थापित हो पाता है।

जब ओठों से गुरु शब्द उच्चारण होते ही गला अवरूद्ध हो जाए और आँखे छलछला उठें तो समझे कि शिष्यता का पहला कदम उठ गया है।

और जब २४ घंटे गुरु का अहसास हो, खाना खाते, उठते, बैठते, हंसते गाते अन्य क्रियाकलाप करते हुए ऐसा लगे कि वे ही है मैं नहीं हूं, तों समझें कि आप शिष्य कहलाने योग्य हुए है।

जो कुछ करते हैं, गुरु करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्ही की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।

गुरु से बढ़कर न शास्त्र है न तपस्या, गुरु से बढ़कर न देवी है, व देव और न ही मंत्र, जप या मोक्ष। एक मात्र गुरुदेव ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं
शिव शासनतः शिव शासनतः शिवन शासनतः, शिव शासनतः

जो इस वाक्य को अपने मन में बिठा लेता है, तो वह अपने आप ही शिष्य शिरोमणि बन कर गुरुदेव का अत्यन्त प्रिय हो जाता है। गुरु जो भी आज्ञा देते है, उसके पीछे कोई-रहस्य अवश्य होता है। अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरु कि आज्ञा का पूर्ण तत्परता से, अविलम्ब पालन करना चाहिए, क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यो आया है, इस युग में क्यो जन्मा है, वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है, इस सबका ज्ञान केवल गुरु ही करा सकता है।

शिष्य को न गुरु-निंदा करनी चाहिए और न ही निंदा सुननी चाहिए। यदि कोई गुरु कि निंदा करता है तो शिष्य को चाहिए कि या तो अपने वाग्बल अथवा सामर्थ्य से उसको परास्त कर दे, अथवा यदि वह ऐसा न कर सके, तो उसे ऐसे लोगों की संगति त्याग देनी चाहिए। गुरु निंदा सुन लेना भी उतना दोषपूर्ण है, जितना गुरु निंदा करना।

गुरु की कृपा से आत्मा में प्रकाश सम्भव है। यही वेदों में भी कहा है, यही समस्त उपनिषदों का सार निचोड़ है। शिष्य वह है, जो गुरु के बताये मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लाभ लेकर अपने जीवन में चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।

सदगुरु के लिए सबसे महत्वपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है और जो शिष्य बन गया, वह कभी भी अपने गुरु से दूर नहीं होता। क्या परछाई को आकृति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो सदगुरु कि परछाई की तरह होते है।

जिसमे अपने आप को बलिदान करने की समर्थता है, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खडा कर देने और अपनी पहचान के साथ-साथ गुरु की मर्यादा, सम्मान समाज में स्थापित कर देने की क्षमता हो वही शिष्य है।

गुरु से जुड़ने के बाद शिष्य का धर्म यही होता है, कि वह गुरु द्वारा बताये पथ पर गतिशील हो। जो दिशा निर्देश गुरु ने उसे दिया है, उनका अपने दैनिक जीवन में पालन करें।

यदि कोई मंत्र लें, साधना विधि लें, तो गुरु से ही लें, अथवा गुरुदेव रचित साहित्य से लें, अन्य किसी को भी गुरु के समान नहीं मानना चाहिए।

शिष्य के लिए गुरु ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाए तो उसे छोटे-मोटे अधिकारी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए श्रेष्ठ शिष्य वहीं है, जो अपने मन के तारों को गुरु से ही जोड़ता है।

शिष्य यदि सच्चे ह्रदय से पुकार करे, तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर गुरुदेव तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरुदेव तक पहुंचती ही है, इसमे कभी संदेह नहीं करना चाहिए।

मलिन बुद्धि अथवा गुरु भक्ति से रहित, क्रोध लोभादी से ग्रस्त, नष्ट आचार-विचार वाले व्यक्ति के समक्ष गुरु तंत्र के इन दुर्लभ पवित्र रहस्यों को स्पष्ट नहीं करना चाहिए।

वास्तविकता को केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आम का स्वाद उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना द्वारा विकसित ज्ञान द्वारा ही परम सत्य का साक्षात्कार सम्भव है।

 साभार -श्री गुरु गीता

शरणागतिके सभी अधिकारी हैं- स्वामी रामनरेशाचार्य

पटना में चल रहे चातुर्मास महायज्ञ के दौरान लाला लाजपत राय भवन में संध्याकालिन सत्संग के दौरान जगदगुरु रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज ने कहा कि लौकिक कर्मोंके समान कल्याणमार्गमें भी अधिकारीकी व्यवस्था है। सबलोग सभी कर्मोंको नहीं करवा सकते। अतएव कर्मसाधकोंको आमन्त्रित करनेवाला यह विज्ञापित करता है कि हमारे संस्थान (उद्योग)को कैसा साधक चाहिये। यदि वैसी योग्यतासे युक्त साधक नहीं हो तो उसे, अपने लिये उपयुक्त नहीं मानकर, लौटा देता है। उसे पूर्ण विश्वास होता है कि यह हमारे संस्थानकी फलदायकताको समृद्ध नहीं कर सकता।

    इसी प्रकारसे वैदिकशास्त्रोंने भी तत्-तत् फलदायक कर्मोंके सम्पादनके लिये अधिकारीका निर्धारण किया है।  मोक्षदायक ज्ञानकी प्राप्तिके लिये वे ही अधिकारी हैं जो साधन-चतुष्टय सम्पन्न हैं; अर्थात् जिनके पास नित्य तथा अनित्यका विवेक हो, इस लोक एवं परलोकके समस्त भोगसाधनोंसे पूर्णतः विरक्ति हो, शम-दमादि छः सम्पत्तियाँ हों तथा दृढ़मुमुक्षुत्व (प्रबलतम मोक्षप्राप्तिकी इच्छा) हो। इतना ही नहीं, उपर्युक्त विशिष्ट साधनोंसे सम्पन्न साधकको ब्राह्मण होना आवश्यक है, वह भी पुरुष जाति का। क्योंकि ब्रह्मविद्याके अनुष्ठानमें उपनयन-संस्कारसे मण्डित वेदाध्ययनके लिये अधिकृत मात्र ब्राह्मण ही है। वही संन्यासी बनकर ज्ञान-साधनाके अनुसार ज्ञानको प्राप्तकर मोक्षको प्राप्तकर सकता है। इस साधनामें क्षत्रियादि तथा स्त्रियोंकी अधिकारिता सर्वथा अवरुद्ध है।

   उन्होंने जोर देकर कहा कि कुछ आचार्योंने भक्तिको भी ब्रह्म-विद्या स्वरूप स्वीकारकर उसके प्रवेश-द्वारको क्षत्रियादि एवं स्त्रियोंके लिये बन्ध कर दिया है। केवल ब्राह्मण ही भक्ति-साधनाका अधिकारी है। इस सम्बन्धमें अन्यान्य महामनीषि आचार्य सहमत नहीं हैं। उनकी परमोदार घोषणा है कि भक्ति- साधनाके सभी अधिकारी हैं। उसका सम्पादन कर सभी मानव जीवनको परम धन्यतासे मण्डित कर सकते हैं।

    परन्तु शरणागतिकी उदारता तो आकाशके समान है। धन्य है वैदिक सनातन धर्म, धन्य हैं राम-कृष्णादि भगवदवतार तथा धन्य हैं वे आचार्य व सन्तगण जिन्होंने शरणागतिको प्रचारित एवं प्रसारितकर असंख्य जीवोंको परमफलसे विभूषित किया।
इन विचारोंको जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्यजी महाराजने अभिव्यक्त किया कल्याणकामियोंके लिये; जो अपने पटना-प्रवास के क्रममें लगातार लाला लाजपत राय सभागारमें विचारामृतकी वर्षा कर रहे हैं।

Monday, September 5, 2016

अबलौं नसानी अब न नसैहौं' का पटना में लोकार्पण

पटना में चल रहे जगदगुरु रामानन्दाचार्य श्रीरामनरेशाचार्यजी महाराज के चातुर्मास्य महोत्सव के दौरान गत 2 सितंबर, 2016 को  'अबलौं नसानी अब न नसैहौं' नाम से प्रवचन पुस्तक का विमोचन संपन्न हुआ। चित्र में (दाएँ से) श्री ज्ञानेश उपाध्याय-राजस्थान पत्रिका, डॉ. संजय पासवान-पूर्व मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री, श्रीप्रमोद मुकेश-संपादक,दैनिक भास्कर, पटना,  पूज्य महाराजश्री, पदमश्री रामबहादुर राय-अध्यक्ष-इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, श्रीनरपतसिंह राजवी-विधायक एवं पूर्व मंत्री तथा शास्त्री डॉ. कोसलेन्द्र दास। 

महाराज श्री के प्रवचनों के इस संग्रह का संकलन और संपादन ज्ञानेश उपाध्याय ने किया है। ये उनकी चौथी पुस्तक है।

पटना चातुर्मास्य महायज्ञ के दौरान सामाजिक समरसता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी

पटना चातुर्मास्य महायज्ञ के दौरान 2 सितंबर,2016 को आयोजित विद्वत संगोष्ठी के दौरान मंच पर विराजमान गुरुदेव स्वामी रामनरेशाचार्य, दैनिक भास्कर, पटना के संपादक प्रमोद मुकेश, राजस्थान के पूर्व मंत्री नरपत सिंह राजवी, बीजेपी नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉ. संजय पासवान, वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, दिल्ली के अध्यक्ष रामबहादुर राय। इस मौके पर राजस्थान पत्रिका, जोधपुर के संपादक ज्ञानेश उपाध्याय द्वारा संकलित-संपादित पुस्तक- अबलौ नसानी, अब ना नसैंहों का लोकार्पण हुआ। संचालन डॉ. शास्त्री कोसलेन्द्र दास ने किया।⁠⁠⁠⁠

 क्या कहा महाराजश्री ने-
जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्य जी महाराज ने कहा कि संप्रदाय बुरे अर्थ में नहीं है। संप्रदाय ही है, जिसने गुरु-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाने का काम की है। अनादि काल से गुरु-शिष्य की परंपरा चली रही है। संप्रदाय से हटने के कारण ही समाज में समरसता की कमी आई है। संप्रदाय प्रतिष्ठित शब्द था। धर्म आदमी को नजदीक लाता है, दूर नहीं ले जाता। धनवान होने की इच्छा बुरी बात नहीं है, लेकिन गलत कार्य कर धनवान होना गलत है। राम भाव के माध्यम से समाज में समरसता आए यही हमारा प्रयास है। इसके लिए हर व्यक्ति को साथ मिल कर काम करना होगा। ये बातें उन्होंने शुक्रवार को लाला लाजपत राय भवन में चल रहे दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञ में कहीं। अवसर था सामाजिक समरसता और स्वामी नरेशाचार्य जी महाराज विषय पर गोष्ठी का। इसके पहले महाराज जी के प्रवचन पुस्तिका अबलौं नसानी अब नसैहौं का लोकार्पण किया। अतिथियों का अभिनंदन स्वामी रामानंदाचार्य रामनरेशाचार्य जी महाराज द्वारा किया गया।

अबधर्म की सत्ता को स्वीकार किया जा रहा है : रामबहादुर राय

 सामाजिकसमरसता और स्वामी नरेशाचार्य जी महाराज विषय पर आयोजित गोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने कहा कि असहज और अस्वाभाविक को ही जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मान लिया गया। इसे छोड़ना होगा तभी सामाजिक समरसता आएगी। समरसता लाना चाहते हैं, तो एक मंत्र गांठ बांध लें। आदर का मूल्य बदलना होगा। अहंकार ही समरसता को तोड़ता है। महत्वाकांक्षा भी समरसता में बाधा है। महत्वाकांक्षा तब हानिकर होती है जब किसी को पछाड़ने में नैतिकता की हद पार कर देती है। आतंकवाद और गरीबी जब तक है सामाजिक समरसता नहीं हो सकती। धर्म की सत्ता को अब स्वीकार किया जा रहा है। पिछली सदी में धर्म को अफीम माना जाता था। लेकिन अब संयुक्त राष्ट्र भी इसे स्वीकार कर रहा है कि धर्म की सत्ता को स्थापित करने में कैसे योगदान दें। लोकतंत्र भारत की प्राणवायु है। लोकतंत्र यानी विविधता। यह सिर्फ शासन प्रणाली ही नहीं, जीवन शैली भी है।

समानता से बना शब्द है समरसता - संजय पासवान

पूर्वकेंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने समरसता को परिभाषित करते हुए कहा कि समरसता समानता से बना शब्द है। समरसता में स- समानता है, म-ममता, र-रमण, स-सामंजस्य और त- तारतम्यता है। सब एक साथ मिलती है, तो समरसता बनता है। समरसता के सभी घटकों को जोड़ना होगा। वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश उपाध्याय ने कहा कि प्रवचन पुस्तिका में राम और रावण में भेद को भी बताया गया है। राजस्थान के पूर्व मंत्री नरपत सिंह राजवी ने कहा कि ऐसी राजनीति भी कोई काम की नहीं जिसमें सिद्धांत के विपरीत काम करें। दैनिक भास्कर के संपादक प्रमोद मुकेश ने कहा कि सामाजिक समरसता से ही देश का विकास होगा। आचार्य के भाव और आंदोलन पूरे विश्व में फैले और सामाजिक समरसता साकार हो।
 

सामाजिक समरसता और स्वामी रामनरेशाचार्य विषयक संगोष्ठी में वक्ताओं ने अपने विचार रखते हुए स्वामी जी के कार्यों की भूरी-भूरी प्रशंसा की।

बीजेपी सांसद आर के सिन्हा ने लिया महाराजश्री से आशीर्वचन

 पटना में चल रहे दिव्य चातुर्मास्य महायज्ञ के दौरान पिछले 30 अगस्त, 2016 को   बीजेपी के राज्यसभा सांसद और बहुभाषी समाचार एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार सेवा के संरक्षक, सिक्य़ूरिटी कंपनी एसआईएस के संस्थापक श्री आर के सिन्हा ने महाराजश्री का दर्शन किया। चित्र में साथ दिख रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार पदमश्री रामबहादुर राय