Saturday, November 29, 2014

जनकपुर में श्रीराम-जानकी विवाह संपन्न

नेपाल के जनकपुर धाम स्थित महाराज विदेह की नगरी में उनकी लाड़ली सीताजी का शादी विवाह पंचमी के दिन पूरे सनातन रीति-रिवाज के साथ धूमधाम से 27 नवंबर को संपन्न हुई। एक मोटे अनुमान के मुताबिक भारत, नेपाल और दुनिया के कई देशों से आए करीब 12 लाख लोगों ने इसबार श्रीराम-जानकी विवाह के मंगलमय अनुष्ठान में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी और अपने जीवन को धन्य बनाया।  सगुण एवम निर्गुण रामभक्ति परंपरा के एकमात्र मूल आचार्यपीठ श्रीमठ,पंचगंगा घाट, काशी के वर्तमान आचार्य और जगदगुरु रामानंदाचार्य पद प्रतिष्टित स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज इस बार आयोजन के मुख्य समन्वयक थे। रामभक्तों के लिए यह अतीव गौरव और प्रसन्नता की बात रही कि कई वर्षों बाद आचार्यश्री जनकपुर पधारे थे और वो भी संतो-भक्तों की बड़ी मंडली लेकर।
                      जनकपुर का श्रीराम- जानकी विवाह वैसे भी परंपरा और ऐतिहासिकता का जीवंत चित्र प्रस्तुत करता है। इस दौरान वे सारे मांगलिक कार्य पूर्ण विधि-विधान और लोक रीति से संपादित होते हैं, जो मिथिला की संस्कृति में आदि काल से प्रचलित रहे हैं। इस बार भी अयोध्या से चलकर काशी और बक्सर जैसे स्थानों से होते हुए बारात जनकपुर तक आई थी। बारात का वैसे ही स्वागत हुआ जैसा कभी जनकजी ने किया होगा।
                     ऐतिहासिक राममंदिर और जानकी मंदिर में विवाह की सभी रस्में पूरी की गयी। परंपरानुसार मंगलवार यानि 26 नवंबर को तिलकोत्सव हुआ। बु्धवार को पूजा मटकोर हुआ और अगले दिन यानि गुरुवार-27 नवंबर,2014 को शादी हुई। शुक्रवार को भतखई के बाद बारात की विदाई हो गयी।
                
                      

 

Monday, November 3, 2014

भगवान विष्णु के चार महीने तक सोने- जगने का रहस्य

चातुर्मास व्रत क्यों और कैसे 

वर्षा काल के चार महीनों को चातुर्मास के नाम से जाना जाता है। इस दौरान संत-महात्मा यात्रा करने से बचते हैं और एक ही जगह रुक जप-तप करते हैं।  माना जाता है कि देवशयनी एकादशी के दिन सभी देवता और  उनके अधिपति भगवान विष्णु सो जाते हैं। फिर चार माह बाद कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को जगते हैं। उस दिन को देवोत्थान एकादशी और हरिप्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है। इस चार माह की अवधि मे कोई विवाह, नया निर्माण , कारोबार और शुभ-मंगल कार्य आरंभ नहीं होता।
swami Ramnareshacharya


श्रद्धालु जन सोचते होंगे कि देवता भी क्या सचमुच सोते हैं। पर वे एकादशी के दिन सुबह तड़के ही विष्णु और उनके सहयोगी देवताओं का पूजन करने के बाद शंख- घंटा घड़ियाल बजाने लगते हैं। पारंपरिक आरती- कीर्तन के साथ वे गाने लगते हैं- उठो देवा, बैठो देवा, अंगुरिया चटकाओं देवा।‘इस आह्रान में भी संदेश छुपा है।

श्रीमठ, पंचगंगा घाट,काशी  के वर्तमान पीठाधीश्वर और रामानंद संप्रदाय के प्रधान आचार्य जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी  के अनुसार वर्षा के दिनों में सूर्य की स्थिति और ऋतु प्रभाव बताने, उस प्रभाव से अपना सामंजस्य बिठाने का संदेश छिपा है। वैदिक वांग्मय के अनुसार सूर्य सबसे बड़े देवता हैं। वर्षा काल में अधिकांश समय सूर्य देवता बादलों में छिपे रहते हैं। इस वजह से पृथ्वी पर कीट-पतंगों की बहुतायत हो जाती है। ऋषियों ने कहा कि इन चार महीनों में विष्णु सो जाते हैं। यह अवधि आहार विहार के मामले में खास सावधानी रखने तक ही सीमित नहीं है। एक और कथा बताती है कि एक बार लक्ष्मी जी ने विष्णु भगवान से कहा कि आप विश्राम क्यों नहीं करते। कहते हैं कि लक्ष्मी जी के कहने पर ही भगवान विष्णु ने बरसात को अपने विश्राम के लिए चुना।

इसमें खास शासन अनुशासन भी है। इसका उद्देश्य वर्षा के दिनों में होने वाले प्रकृति परिवर्तनों के कारण फैलने वाली मौसमी बीमारियों से सुरक्षा भी है। निजी जीवन में स्वास्थ्य संतुलन का ध्यान रखने के साथ यह चार माह की अवधि साधु- संतों के लिए भी विशेष दायित्वों का तकाजा लेकर आती है। घूम-घूम कर धर्म अध्यात्म की शिक्षा देने, लोक कल्याण की गतिविधियों को चलाते रहने वाले साधु संत इन दिनों एक ही जगह पर रुक कर साधना शिक्षण करते हैं।

 श्रीमठ पीठाधीश्वर स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी नियमित तौर पर हर साल चातुर्मास व्रत का अनुष्ठान पूर्ण विधि-विधान और शास्त्रीय गरिमा के अनुसार करते हैं। वे विभिन्न शहरों में हरेक साल इस अनुष्ठान को करते हैं। सुबह से शाम तक इस दौरान धार्मिक प्रवृतियों का समायोजन किया जाता है। इस मौसम में पड़ने वाले व्रत-त्यौहार, जैसे- सावन की सोमवारी, तुलसीदास जयंती, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, नंद महोत्सव और झूलनोत्सव जैसे त्योहार पूरी श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाये जाते हैं।

स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज के पावन सान्निध्य में संत सम्मेलन, विद्धत संगोष्ठी, दलित सम्मेलन जैसे कार्यक्रम चातुर्मास महोत्सव के दौरान होते हैं। शाम की सभा में भजन-प्रवचन का सिलसिला निर्वाध रुप से चलता है। रामानंद संप्रदाय से जुड़े संत-श्रीमहंत और दूसरे महात्मा गण इस दौरान एकत्रित होते हैंं और संप्रदाय की एकता को लेकर योजनाएं बनाते हैं।

भगवान विष्णु को क्यों प्रिय हैं तुलसी

तुलसी के पत्ते से भगवान विष्णु की पूजा का पुण्य

पुराणों में बताया गया है भगवान विष्णु को सबसे अधिक प्रिय तुलसी का पत्ता है। जिस घर में तुलसी की पूजा होती है और नियमित तुलसी को धूप-दीप दिखाया जाता है उस घर में भगवान विष्णु की कृपा सदैव बनी रहती है।

शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि भगवान विष्णु की पूजा में अगर तुलसी पत्ते के साथ भोग अर्पित नहीं किया जाता है तो भगवान उस भोग को स्वीकार नहीं करते।
lord Vishnu


इसका कारण यह है कि भगवान विष्णु ने जलंधर नामक असुर की पत्नी वृंदा का सतीत्व व्रत से विमुख करके जलंधर का वध करने में सहयोग किया था। वृंदा को जब भगवान विष्णु के छल का पता चला तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर होने कि शाप दे दिया। इसीलिए शालिग्राम रुप में भगवान विष्णु की पूजा होती है। लेकिन देवताओं के मनाने पर वृंदा ने भगवान विष्णु को शाप से मुक्त कर दिया और प्राण त्याग दिया।

भगवान विष्णु ने उसी समय वृंदा को वरदान दिया कि तुम मुझे सबसे प्रिय रहोगी और बिना तुम्हारे मैं भोजन भी ग्रहण नहीं करुंगा। वृंदा तुलसी के पौधे के रुप में प्रकट हुई और भगवान विष्णु ने तुलसी को अपने मस्तक पर स्थान दिया।

Friday, October 31, 2014

स्वामी रामनरेशाचार्यजी महाराज का जनकपुर प्रवास, तैयारियां शुरू

जनकपुर में विवाह पंचमी महोत्सव  के मुख्य यजमान होंगे जगदगुरु स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज

Janaki Temple, Janakpur, Nepal
सनातन धर्मावलम्बियों के लिए इस बार की विवाह पंचमी यानि प्रभु श्रीरामजी का सीताजी के साथ विवाह की तिथि विशेष अहम होने जा रही है। हिन्दुओं के पावन तीर्थ जनकपुर धाम (नेपाल) में आयोजित होने वाले वार्षिक मुख्य समारोह के प्रधान यजमान खुद जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज रहने वाले हैं। श्रीराम जानकी विवाह उत्सव 27 नवबंर और प्रभु श्रीराम का तिलकोत्सव 25 नवंबर,2014 को प्रस्तावित है।
प्रत्येक वर्ष की भांति प्रभु श्रीराम की बारात भी अयोध्या, काशी और बक्सर जैसे स्थानों से निकलेगी और
जिस रास्ते प्रभु राम जनकपुर गये थे, उसी रास्ते का अनुगमन करते हुए जनकपुर तक जाएगी। रामभक्ति परंपरा के मूल आचार्यपीठ के वर्तमान आचार्य श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज के जगदगुरु रामानंदाचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के 25 साल हो रहे हैं। इसलिए भी इस साल का महत्व काशी स्थित श्रीमठ के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व का है।
Maa Janki Temple
आचार्यश्री का कारवां श्रीमठ, काशी से 24 नवंबर को प्रस्थान करेगा। उसी दिन दोपहर में बक्सर होते हुए आरा पहुंचेगा, जहां संत, श्रमहंत और सदगृहस्थ दोपहर का भोजन और विश्राम करेंगे। फिर शाम में दर्जनों गाड़ियों के साथ ये काफिला पटना रवाना होगा। वहीं यात्रा का पड़ाव है। रात्रि विश्राम के बाद स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी महाराज के सान्निध्य में यात्रा मुजफ्फरपुर के लिए प्रस्थान करेगी। दोपहर में भोजन और विश्राम वहीं होगा। उसी शाम सभी संत औऱ भक्तगण जनकपुर पहुंच जाएंगे।
बिहार के विभिन्न स्थानों पर यात्रा में शामिल लोगों के  स्वागत औऱ अभिनंदन की पुरजोर तैयारी चल रही है। रामानंदाचार्य आध्यात्मिक मंडल से जुड़े लोग देशभर से आए रहे संत-महात्मा और भक्तों के स्वागत-सत्कार की तैयारियों में जी जान से लगे हैं। यात्रा का दौरान बाहर से आ रहे अतिथियों के कोई परेशानी न हो, इसका विशेष ध्यान रखा जा रहा है।
श्रीमठ, काशी से जुड़े आरा निवासी सत्येन्द्र पाण्डेय ने बताया कि श्रीराम विवाह यात्रा का पहला पड़ाव आरा में पड़ रहा है, इसलिए हमारी जिम्मेदारी कुछ ज्यादा बढ़ गयी है। आरा में अतिथियों को सुरुचिपूर्ण बिहारी व्यंजन परोसा जाएगा। यात्रा को ऐतिहासिक बनाने के लिए हर तरह के प्रबंध किये जा रहे हैं। प्रचार-प्रसार के लिए पर्चा, पोस्टर और होर्डिंग्स बनवाये जा रहे हैं।




Saturday, July 19, 2014

जय राम रमा रमनं समनं


जय राम राम रमनं समनं । भव ताप भयाकुल पाहि जनम ॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो । सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥
दससीस बिनासन बीस भुजा । कृत दूरी महा महि भूरी रुजा ॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे । सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥
महि मंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग बरं ॥
मद मोह महा ममता रजनी । तम पुंज दिवाकर तेज अनी ॥
मनजात किरात निपात किए । मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे । बिषया बन पावँर भूली परे ॥
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए । भवदंघ्री निरादर के फल ए ॥
भव सिन्धु अगाध परे नर ते । पद पंकज प्रेम न जे करते ॥
अति दीन मलीन दुखी नितहीं । जिन्ह के पद पंकज प्रीती नहीं ॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के । प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह के ॥
नहीं राग न लोभ न मान मदा । तिन्ह के सम बैभव वा बिपदा ॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा । मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ । पड़ पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ॥
सम मानि निरादर आदरही । सब संत सुखी बिचरंति मही ॥
मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुबीर महा रंधीर अजे ॥
तव नाम जपामि नमामि हरी । भव रोग महागद मान अरी ॥
गुण सील कृपा परमायतनं । प्रणमामि निरंतर श्रीरमनं ॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं । महिपाल बिलोकय दीन जनं ॥

बार बार बर मागऊँ हरषी देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास ।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ॥

Tuesday, April 29, 2014

जय जय सुरनायक

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनत पाल भगवंता
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधु सुता प्रिय कंता
पालन सुर धरनी अदभुत करनी मरम जानइ कोई
सो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई
जय जय अविनाशी सब घट बासी व्यापक परमानंदा
अबिगत गोतितं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिवृंदा
निसि बासर ध्यावहीं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा
जेहि सृष्टि उपाई त्रिबिधि बनायी संग सहाय न दूजा
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिय भगति न पूजा
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन विपति बरुथा
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुं कोउ नहिं जाना
जेहि दीन पिआरे वेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना
सब बारिधि मंदर सब विधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा

मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पदकंजा।।


साभार-श्रीरामचरितमानस के बालकांड से

Thursday, April 10, 2014

अयोध्या में स्वामी रामनरेशाचार्य का जगदगुरु रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठा का रजत जयंती समारोह संपन्न

रामभक्ति परंपरा और रामानंद संप्रदाय के मूल आचार्यपीठ, श्रीमठ, पंचगंगा घाट,काशी के वर्तमान आचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य के जगदगुरु रामानंदाचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए 25 साल हो गये। श्रीमठ इस वर्ष को आचार्यश्री की पद प्रतिष्ठा की रजत जयंती वर्ष के तौर पर मना रहा है। श्रीमठ की ओर से वर्ष पर्यन्त विविध कार्यक्रमों का समायोजन किया जा रहा है। इसकी शुरुआत अयोध्या में नवरात्र के दौरान आयोजित समारोह से हुई। नौ दिनों तक चले कार्यक्रम में सुबह से दोपहर तक धार्मिक कार्यक्रम होते रहे और शाम में संगीत की महफिल सजती थी, जिसमें नामी-गिरामी कलाकार भगवान श्रीराम के लिए बधाई गान गाते थे। पहले दिन कोलकाता से आए सुख्यात बांसुरी वादक रोनू मजुमदार ने समां बांधा था। बीच के दिनों में मालिनी अवस्थी, भरत शर्मा व्यास, इंदौर की कल्पना जोगारकर, कोलकाता के अर्णव चटर्जी, वाराणसी के प्रो. राजेश्वर आचार्य, रायपुर के स्वामी जी सी डी भारत, मुम्बई के अखिलेश चतुर्वेदी, वाराणसी के देवाशीष डे, मुम्बई की श्रीमती कंकन बनर्जी आए। अंतिम दिन यानि श्रीरामनवमी को विख्यात भजन गायक रवीन्द्र जैन ने समापन समारोह में चार-चांद लगा दिया। अयोध्या के जानकी घाट स्थित श्रीरामवल्लभा कुंज सहित बाकी प्रमुख वैरागी आश्रमों में अलग-अलग दिन कार्यक्रम हुए। अंतिम दिन छोटी छावनी के नाम से प्रसिद्ध मणिराम दास की छावनी में कार्यक्रम हुआ। पूरे कार्यक्रमों में देश भर से आए रामानंदी साधु-संत, श्रीमहंत, श्रीमठ के भक्त और अयोध्याजी के प्रमुख संतों की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। 

Saturday, January 25, 2014

"समाज की सहज अभिव्यक्ति है भक्ति"-प्रो.कमलेश दत्त

वाराणसी : भक्ति की भावना भारतीय समाज की सहज अभिव्यक्ति है। प्रेम, करुणा, सहनशीलता और समानता उसके तत्व हैं। इसलिए ‘आंदोलन’ और ‘प्रस्थान’ दोनों समय-समय पर उपयुक्त हुए हैं। यह बातें शुक्रवार को श्रीमठ में प्रो. कमलेश दत्त त्रिपाठी ने कहीं। वे भक्ति आंदोलन और भारतीय समाज विषयक संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि आंदोलन और प्रस्थान शब्द में शास्त्रीयता और सामाजिक राजनीतिक ध्वनि का स्वर सुनाई देता है। इस अवसर पर साहित्यकार एवं पत्रकार आनंद शर्मा को जगतगुरु रामानंदाचार्य पुरस्कार के रूप में एक लाख रुपये नकद दिए जाने की घोषणा की गई। खराब स्वास्थ की वजह से वह नहीं आ सके।श्रीमठ पीठाधीश्वर जगदगुरु स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी ने कहा कि भक्ति सनातन है। आंदोलन परिधिबद्ध। सनातन शक्ति का मांगलिक चरण है। स्वामी रामानंद इसके पुरोधा थे। अशोक सिंह, प्रो. देवव्रत चौबे, बाबूराम त्रिपाठी, शिवशंकर मिश्र आदि ने विचार व्यक्त किया। संचालन डा. उदय प्रताप सिंह ने किया।

Friday, January 24, 2014

गुरु चरणों में चढ़ाये श्रद्धा के सुमन

आदि जगदगुरु रामानंदाचार्य की 715वीं जयंती पर 23 जनवरी,2013 को अनुयायियों ने पूजन अनुष्ठान किया। गीत संगीत गूंजे, नृत्य से भावांजलि दी और शोभायात्र भी निकाली। काशी स्थित रामानंद सम्प्रदाय की मूल आचार्य पीठ- श्रीमठ में पीठाधीश्वर जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी महाराज ने सुबह चरण पादुका पूजन किया। षोडशोपचार विधि से पूजा-अर्चना की गई। सम्पूर्ण वैदिक कर्मकांडों का संपादन पं. त्रिलोकीनाथ जेतली कराया। चारों वेदों की ऋचाओं का पारायण भी किया गया। शाम को गौरव मिश्र ने बधाई के गीत गाए। डा. ममता टंडन, रवि शंकर मिश्र व गौरव सौरव मिश्र ने कथक से गुरु वंदना के भाव सजाए। शिव व यशोदा पर आधारित नृत्य किया। तबला पर भोलानाथ मिश्र, हारमोनियम पर गौरव मिश्र, सितार पर ध्रुवनाथ मिश्र, सहनृत्य में सूफी व मांडवी ने साथ दिया। संयोजन विधान बाबा ने किया। दो दिवसीय आयोजन के दूसरे दिन अर्थात 24 जनवरी को विशाल संत-सम्मेलन का आयोजन किया गया है। साथ ही वरिष्ठ पत्रकार आनंद मिश्र को समारोह में जगदगुरु रामानंदाचार्य पुरस्कार भी दिया जाएगा।

Tuesday, January 21, 2014

"रामानंद: स्वयं राम: प्रादुर्भूतो महीतले''

             स्वामी रामानंदाचार्य की जयंती 23 जनवरी पर विशेष

"रामानंद: स्वयं राम: प्रादुर्भूतो महीतले''
                                                                                                                     *डॉ.देवकुमार पुखराज
काशी (वाराणसी) के सुरम्य गंगा घाटों में पंच्चगंगा घाट का अपना एक विशिष्ट स्थान है, इसी घाट पर अवस्थित है श्रीमठ, जिसे मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के शीर्ष संत स्वामी रामानंद की तपः स्थली होने का गौरव प्राप्त है। उस रामानंद ने आज से सात सौ पंद्रह वर्ष पहले समाज-जीवन के विविध क्षेत्रों, विभिन्न मत-पंथ- संप्रदायों में व्याप्त वैमनस्यता और कटुता को दूर कर हिंदू समाज को एक सूत्र में बांधने का कार्य किया। स्वामीजी ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को आदर्श मानकर सरल रामभक्ति मार्ग का निदर्शन किया। आचार्यपाद ने स्वतंत्र रूप से श्रीसंप्रदाय का प्रवर्तन किया। जिसे रामानंदी,रामावत अथवा वैरागी संप्रदाय भी कहते हैं।  उन्होंने बिखरते और नीचे गिरते हुए समाज को मजबूत बनाने की भावना से भक्ति मार्ग में जाति-पांति के भेद को व्यर्थ बताया और कहा कि भगवान की शरणागति का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला हैसर्वे प्रपत्तेधिकारिणो मताः
स्वामी श्रीरामानंद ने दलित, शोषित और उपेक्षित जातियों और महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाकर समाज में समरसता का अपू्र्व वातावरण निर्मित किया। आचार्य रामानंद के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने तारक राममंत्र का उपदेश पेड़ पर चढ़कर दिया था,ताकि  सब जाति के लोगों के कान में पड़े और अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो सके। उन्होंने नारा दिया था-
"जाति-पाति पूछे न कोई , हरि को भजै सो हरि का होई "
ऐसा कहकर उन्होंने किसी भी जाति-वर्ण के व्यक्ति को राममंत्र देने में संकोच नहीं किया। चर्मकार जाति में जन्मे रैदास ( रविदास) और जुलाहे के घर पले-बढ़े कबीरदास इसके अनुपम उदाहरण हैं। युग प्रवर्त्तक स्वामी रामानंदाचार्य जी महाराज के बारे में एक प्रसिद्ध पंक्ति कही--सुनी जाती है, जिसके अनुसार-
"भक्ति द्रविड़ ऊपजी, लायो रामानंद,”  अर्थात भक्ति की धारा को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाने का श्रेय भी स्वामी रामानंद को ही जाता है।
उनकी शिष्य मंडली में जहां एक ओर कबीरदास, रैदास, सेन नाई और पीपा नरेश जैसे जाति-पांति, छुआछूत, वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा के विरोधी निर्गुणवादी संत थे, तो दूसरी ओर अवतारवाद के पूर्ण समर्थक अर्चावतार मानकर मूर्तिपूजा करने वाले स्वामी अनंतानंद, भावानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद जैसे सगुणोपासक आचार्य भक्त भी थे। उसी परंपरा में कृष्णदत्त पयोहारी जैसा तेजस्वी साधक और गोस्वामी तुलसीदास जैसा विश्व विश्रुत, कालजयी महाकवि भी उत्पन्न हुए।
            स्वामी रामानंद को रामोपासना के इतिहास में एक युगप्रवर्तक आचार्य माना जाता है। उन्होंने श्रीसंप्रदाय के विशिष्टाद्वैत दर्शन और प्रपत्ति सिद्धांत को आधार बनाकर रामावत संप्रदाय का सूत्रपात किया। श्रीवैष्णवों के नारायण मंत्र के स्थान पर रामतारक अथवा षडक्षर( रां रामाय नमः) राममंत्र को सांप्रदायिक दीक्षा का बीजमंत्र माना। बाह्य सदाचार की अपेक्षा साधना में आंतरिक भाव की शुद्धता पर जोर दिया। छुआछूत, ऊंच-नीच का भाव मिटाकर वैष्णव मात्र में समता का समर्थन किया। नवधा से परा और प्रेमासक्ति को श्रेयकर बताया। साथ-साथ सिद्धांतों के प्रचार में परंपरापोषित संस्कृत भाषा की अपेक्षा हिंदी अथवा जनभाषा को प्रधानता दी। स्वामी रामानंद ने प्रस्थानत्रयी पर विशिष्टाद्वैत सिद्धांतनुगुण स्वतंत्र आनंद भाष्य की रचना की। तत्व एवं आचारबोध की दृष्टि से वैष्णवमताब्ज भास्कर, श्रीरामपटल, श्रीरामार्चनापद्धति, श्रीरामरक्षास्त्रोतम जैसी अनेक कालजयी मौलिक ग्रंथों की रचना की। ऐसा माना जाता है कि संस्कृत के स्थान पर जन सामान्य के बीच प्रचलित हिन्दी अथवा अवधि भाषा को सर्वप्रथम अपनी रचना का माध्यम स्वामी रामानंद ने ही बनाया। इन कार्यों के चलते ही कई विद्वान उन्हें हिन्दी का पहला कवि भी कहते हैं।  
            ऐसे महान तपस्वी संत, परम विचारक, समन्वयी महात्मा का प्रादुर्भाव तीर्थराज प्रयाग में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जन्मतिथि को लेकर मतभेद होने के बावजूद रामानंद संप्रदाय में मान्यता है कि आद्य जगद्गुरू का प्राकट्य माघ कृष्ण सप्तमी संवत् 1356 को हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित पुण्य सदन शर्मा और माता का नाम सुशीला देवी था। धार्मिक संस्कारों वाले पंडित शर्मा मे रामानंद को शिक्षा ग्रहण करने के लिए काशी के पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ में गुरू राघवानंद के पास भेजा था। कुशाग्रबुद्धि के रामानंद ने अल्पकाल में ही सभी शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन कर प्रवीणता प्राप्त कर ली। गुरु राघवानंद और माता-पिता के दबाव के बावजूद उन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार नहीं किया और आजीवन विरक्त रहने का संकल्प लिया। बाध्य होकर गुरुदेव ने स्वामी रामानंद को रामतारक मंत्र की दीक्षा प्रदान की। उन्होंने श्रीमठ की गुह्य साधनास्थली में प्रविष्ट हो राममंत्र का अनुष्ठान तथा अन्यान्य तांत्रिक साधनाओं का प्रयोग करते हुए घोर तपश्चर्या की। योगमार्ग की तमाम गुत्थियों को सुलझाते हुए अष्टांग योग की साधना पूर्ण की। दीर्घायुष्य प्राप्त करने के कारण जगद्गुरु राघवानंद ने अपने तेजस्वी और परमप्रिय शिष्य रामानंद को श्रीमठ की पावन पीठ पर अभिषिक्त कर दिया। अपने पहले संबोधन में ही जगद्गुरु रामानंदाचार्य ने हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर करने तथा परस्पर आत्मीयता एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार के बदौलत धर्म रक्षार्थ विराट संगठित शक्ति खड़ा करने का संकल्प व्यक्त किया। 
            श्रीसीताजी द्वारा पृथ्वी पर प्रवर्तित विशिष्टाद्वैत (राममय जगत की भावधारा) सिद्धांत तथा रामभक्ति की पावन धारा को मध्यकाल में स्वामी श्रीरामानंदाचार्य ने अनुपम तीव्रता प्रदान की। उन्होंने क्रुर, विवेकशून्य, पूर्वाग्रही तथा असहिष्णु यवन शासकों के अत्याचारों का मुखर विरोध किया। शंखध्वनी कर अपनी यौगिक शक्ति से ऐसा माहौल बनाया कि तत्कालीन मुगल सम्राट तुगलक को कबीरदास के माध्यम से स्वामीजी के पास शरणागत होकर क्षमा याचना करनी पड़ी। उसे हिन्दुओं पर लगे समस्त प्रतिबंध हटाने और जजियाकर को समाप्त करने का आदेश निर्गत करना पड़ा।
            मध्ययुगीन धर्म साधना के केंद्र में स्वामी जी की स्थिति चतुष्पथ के दीप-स्तंभ जैसी है उन्होंने अभूतपूर्व सामाजिक क्रांति का श्रीगणेश करके बड़ी जीवटता से समाज और संस्कृति की रक्षा की उन्हीं के चलते उत्तरभारत में तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा और वहां सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना संभव हो सकी। उस युग की परिस्थितियों के अनुसार, वैरागी साधु समाज को अस्त्र-शस्र से सज्जित अनी के रूप में संगठित कर तीर्थ-व्रत की रक्षा के लिए, धर्म का सक्रिय मूर्तिमान स्वरूप खड़ा किया। तीर्थस्थानों से लेकर गांव-गांव में वैरागी साधुओं ने अखाड़े स्थापित किए। आज भी निर्वाणी, दिगम्बर और निर्मोही नामक तीन मूल अखाड़े और उसकी कई शाखाएं देश भर में सनातन धर्म की मूल पताका को लहरा रही हैं।  मूल्य ह्रास की इस विषम अवस्था में भी संपूर्ण संसार में रामानंद संप्रदाय के सर्वाधि मठ, मंदिर और संत-महात्मा हैंआज भी इस संप्रदाय के आश्रमों में संत-साधु और गृहस्थ की सेवा, रामगुणगान, अखंड श्रीरामना संकीर्तन व्यवस्थित हैं और सर्वत्र आध्यामिक आलोक प्रसारित कर रहे हैं। इस संप्रदाय की व्यापकता का हिसाब इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वैष्णवों के बावन द्वारों में सर्वाधिक छत्तीस द्वारे इसी संप्रदाय से जुड़े हैं। कुंभ मेले के दौरान रामानंदी साधुओं के विराट स्वरुप, इनकी उदारता और अन्नदान की परंपरा को कोई भी देख सकता है।
            युगप्रवर्तक स्वामी रामानंदाचार्यजी महाराज द्वारा प्रर्वतित मूल रामानंद संप्रदाय के अलावे इसकी शाखा, प्रशाखा और अवान्तर शाखाएं जैसे- रामस्नेही, कबीरदासी, घीसापंथी, दादूपंथ आदि नामों से सक्रिय हैं, जो इस संप्रदाय की मूलभावना की संवाहिका बनी हैं यह स्वामी रामानंद के ही व्यक्तित्व का प्रभाव था कि हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष, मत-मतांतर का झगड़ा और परस्पर सामाजिक कटुता बहुत हद तक कम हो गई
             बलपूर्वक इस्लाम धर्म में दीक्षित हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए परावर्तन संस्कार का महान कार्य सर्वप्रथम स्वामी रामानंदाचार्य जी ने ही प्रारंभ किया था। इतिहास साक्षी है कि अयोध्या के राजा हरिसिंह के नेतृत्व में चौंतीस हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया था।
             काशी के परम पावन पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ, आचार्यपाद द्वारा प्रवाहित श्रीराम प्रपत्ति की पावनधारा के मुख्यकेंद्र के रूप में प्रतिष्ठित होकर उसी ओजस्वी परंपरा का अनवरत प्रवर्तन कर रहा है। आज भी श्रीमठ आचार्यचरण की परिकल्पना के अनुरूप उनके द्वारा प्रज्ज्वलित दीप से जनमानस को आलोकित कर रहा है। यही वह दिव्यस्थल है, जहां विराजमान होकर स्वामीजी ने अपने परमप्रतापी शिष्यों के माध्यम से अपनी अनुग्रहशक्ति का उपयोग किया था रामानंदाचार्य पीठ के नाम से प्रसिद्ध श्रीमठ, दुनिया भर में फैले श्रीराम भक्तों की श्रद्धा का अनुपम केन्द्र है और सगुण एवं निर्गुण रामभक्ति परंपरा और रामानंद संप्रदाय का एकमात्र मूल आचार्यपीठ अथवा दूसरे शब्दों में कहें को मुख्यालय है। श्रीमठ में अवस्थित रामानंदाचार्य जी की पावन चरणपादुका दुनियाभर में बिखरे रामानंदी संतों, तपस्वियों एवं अनुयायियों के बीच समादृत है।
             श्रीमठ के वर्तमान पीठासीन आचार्य स्वामी रामनरेशाचार्यजी भी स्वामी रामानंदाचार्च की प्रतिमूर्ति जान पड़ते हैं। इनका ज्ञान, वग्मिता और सबसे अच्छी नकी उदारता और संयोजन चेतना  को देखकर यह  कल्पना किया जा सकता है कि स्वामी रामानंद का व्यक्तित्व कैसा रहा होगा वर्तमान जगद्गुरू रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज के सत्प्रयासों का नतीजा है कि श्रीमठ से कभी अलग हो चुकी कबीरदासीय, रविदासीय, रामस्नेही, प्रभृति परंपराएं वैष्णवता के सूत्र में बंधकर श्रीमठ से एकरूपता स्थापित कर रही है कई परंपरावादी मठ -मंदिरों की इकाईयां श्रीमठ में विलीन हो रही हैं तीर्थराज प्रयाग के दारागंज स्थित आद्य जगद्गुरू रामनंदाचार्य का प्राकट्यधाम भी इनकी प्रेरणा से फिर भव्य स्वरूप में प्रकट हुआ है।

              स्वामी रामानंद के द्वारा दी गई देश-धर्म के प्रति इन अमूल्य सेवाओं ने सभी संप्रदायों के वैष्णवों के हृदय में उनका महत्व स्थापित कर दिया। भारत के सांप्रदायिक इतिहास में परस्पर विरोधी सिद्धांतों तथा साधना-पद्धतियों के अनुयायियों के बीच इतनी लोकप्रियता उनके पूर्व किसी संप्रदाय प्रवर्तक को प्राप्त न हो सकी। महाराष्ट्र के नाथपंथियों ने ज्ञानदेव के पिता विट्ठल पंत के गुरू के रूप में उन्हें पूजा, अद्वैत मतावलंबियों ने ज्योतिर्मठ के ब्रह्मचारी के रूप में उन्हें अपनाया। बाबरीपंथ के संतों ने अपने संप्रदाय के प्रवर्तक मानकर उनकी वंदना की और कबीर के गुरू तो वे थे ही, इसलिये कबीरपंथियों में उनका आदर स्वाभाविक है स्वामी रामानंदाचार्य  के व्यक्तित्व की इस व्यापकता का रहस्य- उनकी उदार और समन्वयकारी विचारधारा में निहित है निश्चय हीं उनके विराट व्यक्तित्व एवं व्यापक महत्ता के अनुरूप कतिपय आर्षग्रंथ एवं संत-साहित्य में उल्लेखित उनके रामावतार होने का वर्णन अक्षरश: प्रमाणित होता है। अगस्त संहिताकार ने लिखा है कि - रामानंद: स्वयं राम: प्रादुर्भूतो महीतले। अर्थात स्वयं श्रीराम ही पृथ्वी पर रामानंद के रुप में अवतार लिये। ऐसे महान तपस्वी, साधक और मानवता के परम उन्नायक को उनकी जयंती पर शत-शत नमन।
 -इति-