Thursday, October 29, 2009

सनातन धर्म के संस्कार

सनातन धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों की महती भूमिका और योगदान है। पहले चालीस प्रकार के संस्कारों की चर्चा मिलती है लेकिन अब सोलह प्रकार के संस्कार हीं मान्य हैं ।

प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।

नामकरण के बाद चूडाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है। विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।

गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है। दोष मार्जन के बाद मनुष्य के सुप्त गुणों की अभिवृद्धि के लिये ये संस्कार किये जाते हैं।

हालांकि हाल के कुछ वर्षो में आपाधापी की जिंदगी और अतिव्यस्तता के कारण सनातन धर्मावलम्बी अब इन मूल्यों को भुलाने लगे हैं इसके परिणाम भी चारित्रिक गिरावट, संवेदनहीनता, असामाजिकता और गुरुजनों की अवज्ञा या अनुशासनहीनता के रूप में हमारे सामने आने लगे हैं। समय के अनुसार बदलाव जरूरी है लेकिन हमारे मनीषियों द्वारा स्थापित मूलभूत सिद्धांतों को नकारना कभी श्रेयस्कर नहीं होगा। हमारे मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिये अपने अथक प्रयासों और शोधों के बल पर ये संस्कार स्थापित किये हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण भारतीय संस्कृति अद्वितीय है।

Wednesday, October 28, 2009

मोक्ष प्राप्ति का पर्व अक्षय नवमी

हमारे धर्म और संस्कृति में कार्तिकमहीने को बहुत ही पावन माना जाता है। दीपावली से लेकर पूर्णिमा स्नान तक कई पर्व आते हैं, जिनमें अक्षय नवमी भी एक है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाने वाले इस पर्व में आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। खिचड़ी आदि पकाकर केले के पत्तों पर सामूहिक रूप से भोजन करने का भी विधान है।

अक्षय नवमी का महत्व : एक बार भगवान विष्णु से पूछा गया कि कलियुग में मनुष्य किस प्रकार से पाप मुक्त हो सकता है। भगवान ने इस प्रश्न के जवाब में कहा कि जो प्राणी अक्षय नवमी के दिन मुझे एकाग्र हो कर ध्यान करेगा, उसे तपस्या का फल मिलेगा। यही नहीं शास्त्रों में ब्रह्म ïहत्या को घोर पाप बताया गया है। यह पाप करने वाला अपने दुष्कर्म का फल अवश्य भोगता है, लेकिन अगर वह अक्षय नवमी के दिन स्वर्ण, भूमि, वस्त्र एवं अन्नदान करे और वह आंवले के वृक्ष के नीचे लोगों को भोजन कराए, तो इस पाप से मुक्त हो सकता है।

अक्षय नवमी कथा : पौराणिक ग्रंथों में अक्षय नवमी को लेकर कई किंवदंतियां हैं। प्राचीन काल में प्राचीपुर केे राजकुमार मुकुंद देव जंगल में शिकार खेलने गए हुए थे। तभी उनकी नजर एक सुंदरी पर पड़ी। उन्होंने युवती से पूछा, 'भद्रे तुम कौन हो और तुम्हारा नाम क्या है? ’ युवती ने बताया- ''मेरा नाम किशोरी है। मैं इसी राज्य केव्यापारी कनकाधिप की पुत्री हूं, लेकिन आप कौन हैं ’ ’? मुकुंद देव ने अपना परिचय देते हुए उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की। इस पर किशोरी रोने लगी। मुकुंद देव ने उसके आंसू पोंछे और रोने का कारण पूछा। उसने उत्तर दिया, 'मैं आपकी मृत्यु का कारण नहीं बनना चाहती। वैधव्य की पीड़ा बड़ी भयंकर होती है। मेरे भाग्य में पति सुख लिखा ही नहीं है। राज ज्योतिषी ने कहा है कि मेरे विवाह मंडप में बिजली गिरेगी और वर की तत्काल मृत्यु हो जाएगी।

लेकिन मुकुंद देव को अपनी बात पर अडिग देख किशोरी ने कहा - ''राजन, आप कुछ समय प्रतीक्षा करें। मैं अपने अराध्य देव की तपस्या करके उनसे अपना भाग्य बदलने की प्रार्थना करूंगी। ’ ’ मुकुंद देव इस बात से सहमत हो गए किशोरी शिव की आराधना में लीन हो गई। कई माह पश्चात्ï शिवजी प्रसन्न होकर उसके समक्ष प्रकट हुए और वर मांगने को कहा। किशोरी ने अपनी व्यथा सुनाई।

शिवजी बोले, 'गंगा स्नान करके सूर्य देव की पूजा करो, तभी तुम्हारी भाग्य रेखा बदलेगी और वैधव्य का योग मिटेगा। किशोरी गंगा तट पर आकर रहने लगी। वह नित्य गंगा केे जल में उतरकर सूर्य देव की आराधना करने लगी।

उधर राजकुमार मुकुंद देव भी गंगा केे किनारे एक कुटी में रहकर ब्रह्ममुहूर्त में गंगा में प्रवेश कर सूर्य के उदय होने तक प्रार्थना करने लगे।

इसी बीच एक दिन लोपी नामक दैत्य की ललचाई नजर किशोरी पर पड़ी। वह उस पर झपटा। तभी सूर्य भगवान ने अपने तेज से उसे भस्म कर डाला और किशोरी से कहा कि कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को तुम आंवले के वृक्ष के नीचे विवाह मंडप बनाकर मुकुंद देव केे साथ विवाह रचाना। तब वैधव्य योग हटेगा और दांपत्य सुख पाओगी। किशोरी और मुकुंद देव ने मिलकर मंडप बनवाया और उस अवसर पर देवताओं को भी आमंत्रित किया। विवाह रचाने के लिए महर्षि नारद जी आए। फेरों के दौरान आकाश से गडग़ड़ाहट के साथ बिजली गिरी, लेकिन आंवले के वृक्ष ने उसे रोक लिया और किशोरी के सुहाग की रक्षा की। वहां उपस्थित लोग जय-जयकार करने लगे। तभी से आंवले के वृक्ष को पूजनीय माना जाने लगा। कहा जाता है कि आज भी आंवले के वृक्ष के नीचे कार्तिक शुक्ल की अक्षय नवमी के दिन देवतागण एकत्रित होते हैं और अपने भक्तगणों को आशीर्वाद देते हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार देवी लक्ष्मी तीर्थाटन पर निकली तो रास्ते में उनकी इच्छा हुई कि भगवान विष्णु और शिव की पूजा की जाए। देवी लक्ष्मी उस समय सोचने लगीं कि एक मात्र चीज क्या हो सकती है जिसे भगवान विष्णु और शिव जी पसंद करते हों, उसे ही प्रतीक मानकर पूजा की जाए। इस प्रकार काफी विचार करने पर देवी लक्ष्मी को ध्यान पर आया कि धात्री ही ऐसी है, जिसमें तुलसी और बिल्व दोनों के गुण मौजूद हैं फलत: इन्हीं की पूजा करनी चाहिए। देवी लक्ष्मी तब धात्री के वृक्ष की पूजा की और उसी वृक्ष के नीचे प्रसाद ग्रहण किया। इस दिन से ही धात्री के वृक्ष की पूजा का प्रचलन हुआ

पूजा विधि : अक्षय नवमी के दिन संध्या काल में आंवले के पेड़ के नीचे भोजन बनाकर लोगों को खाना खिलाने से बहुत ही पुण्य मिलता है। ऐसी मान्यता है कि भोजन करते समय थाली में आंवले का पत्ता गिरे तो बहुत ही शुभ माना जाता है। इससे यह संकेत होता है कि आप वर्ष भर स्वस्थ रहेंगे। इस दिन आंवले के वृक्ष के सामने पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठें। आंवले के वृक्ष की पंचोपचार सहित पूजा करें फिर वृक्ष की जड़ को दूध से सिंचन करें। कच्चे सूत को लेकर धात्री के तने में लपेटें। अंत में घी और कर्पूर से आरती और परिक्रमा करें।

Friday, October 23, 2009

पायसपाय़ी का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित


युगप्रवर्तक स्वामी रामानंदाचार्य की जीवनी पर आधारित चर्चित उपन्यास पायसपायी का अंग्रेजी संस्करण भी आ गया है. राजस्थान के कोटा निवासी हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान डॉ दयाकृष्ण विजयवर्गीय विजय ने इसे लिखा है जबकि अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया है जयपुर निवासी संस्कृत-अंग्रेजी के जाने-माने विद्वान देवर्षि कलानाथ शास्त्री ने. पिछले दिनों जयपुर के खण्डाका हाउस में आयोजित एक सारस्वत समारोह में श्रीमठ काशी पीठाधीश्वर रामानंद संप्रदाय के मुख्य आचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्य महाराज ने पायसपायी के नए संस्करण का लोकार्पण किया. इस मौके पर आचार्यश्री ने लेखक और अनुवादक के कार्यों की सराहना करते हुए उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की. उन्होंने कहा कि भारत में मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के सूत्रधार रहे रामावतार स्वामी रामानंदाचार्य के जीवन दर्शन और कार्यों से अब दुनियाभर के लोग अवगत हो पाएंगे. समारोह का संचालन आचार्य कोशलेंद्र शास्त्री ने किया.


पुस्तक प्रकाशक-
जगदगुरू रामानंदाचार्य स्मारक न्यास
श्रीमठ पंचगंगा घाट, काशी

जीवन विद्या का अनुसंधान

हैदराबाद में जीवन विद्या से जुड़े हुए देशभर के २३ केन्द्रों से आये हुए लगभग २५० लोग हैदराबाद के पास तुपरानकसबे के अभ्यास स्कूल में एकत्र हुए. जीवन विद्या का दक्षिण भारत में यह पहला और देश का १४ वां राष्ट्रीयसम्मलेन एक से चार अक्टूबर को संपन्न हुआ, जिसमे जीवनविद्या के प्रबोधन, लोकव्यापीकरण और प्रचार में लगेतकरीबन २५० लोग शामिल हुए. दक्षिण भारत के लगभग सभी प्रमुख शहर के प्रतिभागी इसमें उपस्थित थे.

पहले दिन उदघाटन सत्र में श्री नागराज ने इस अनुसन्धान की आवशकता पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा किपृथ्वी पर मानव ज्ञानी, विज्ञानी और अज्ञानी के रूप में है. मानव ने जाने अनजाने पृथ्वी को ना रहने लायक बनादिया है. पृथ्वी को रहने योग्य बनाना ही इस अनुसन्धान का उद्देश है. धरती पर उष्मा बढने के कारण ही धरतीबीमार होती जा रही है. इस पर शोध अनुसन्धान जरुरी है. इसके लिए मानव को न्याय पूर्वक जीना होगा और स्वयंमें समझ कर जीना होगा, यही समस्याओं का समाधान है. उत्पादन कार्य में संतुलन और संवेदनाओं में नियंत्रण सेही अपराध में अंकुश लग सकता है. प्रयोजन के सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि कल्पनाशीलता और करम स्वतंत्रताहर मानव के पास हैं. इसके आधार पर हर मानव समझदार हो सकता है और व्यवस्था में जी सकता है. उन्होंनेनर-नारी में समानता और गरीबी-अमीरी में संतुलन पर जोर दिया. इसी दिन दुसरे सत्र में मुंबई, भोपाल, इंदौर औरपुणे के प्रतिनिधियो ने जीवन विद्या आधारित अभियान की समीक्षा और भावी दिशा पर विचार व्यक्त किये. मुंबई सेआये डॉ. सुरेन्द्र पाठक ने बताया की मुंबई के सोमैया विद्या विहार के विभिन्न कालेजों के ६०० शिक्षको के २४ छःदिवसीय शिविर विगत दो वर्षों में संपन्न हुए हैं तथा मुंबई विश्व विद्यालय के एक पाठ्यक्रम में जीवन विद्या की एकयूनिट शामिल की गई है. मुंबई के आसपास के शहरों में भी परिचय शिविर आयोजित के जा रहे है. भोपाल से आईश्रीमती आतिषी ने मानवस्थली केंद्र की गतिविधियों से अवगत कराया. इंदौर के श्री अजय दाहिमा और पुणे केश्रीराम नर्सिम्हम ने वहां चल रही गतिविधियों को बताते हुए यह भी जानकारी दी की उत्तरप्रदेश तकनीकीविश्वविद्यालय ने अपने सभी ५१२ कालेजो में 'वेल्यु एजूकेशन एंड प्रोफेशनल एथिक्स' जीवन विद्या आधारितफाउनडेशन कोर्से लागु किया है जिसकी टेक्स्ट बुक भी छप गई है. और विधायार्धियो के लिए वेबसाईट बनाकर भीपाठ्य सामग्री उपलब्ध करा दी गई है. अगले सत्र में रायपुर, ग्वालियर, बस्तर, दिल्ली,
बांदा, चित्रकूट आदि केंद्र ने अपनी प्रगति से अवगत कराया. रायपुर से आये श्री अंजनी भाई ने बताया की अभ्भुदयसंस्थान में छत्तीसगड़ राज्य के १०० शिक्षको का छः महीने का अध्ययन शिविर चल रहा है ये शिक्षक २० दिनप्रशिक्षण लेते है और १० दिन अपने-अपने क्षेत्रों में शिविर लेते हैं. राज्य में दस हजार से भी ज्यादा शिक्षको केशिविर हो चुके है. हाल ही में २९ सितम्बर को राज्य के मुख्यमंत्री श्री रमन सिंह ने अभ्भुदय संस्थान का अवलोकनकिया और पूज्य बाबा नागराज जी से अभियान पर चर्चा की और वहां पर प्रशिक्षण ले रहे शिक्षको को संबोधितकिया तथा उनसे प्रशिक्षण के दौरान हुए अनुभवों को भी सुना. इसी अवसर पर आये मीडिया वालो को
मुख्यमंत्री श्री रमन सिंह ने बताया की राज्य के आईएएस, आईपीएस और आईएफएस आधिकारियो को भी एकहफ्ते के प्रशिक्षण के लिए अभ्भुदय संस्थान भेजा जायेगा.

दूसरे दिन मानवीय शिक्षा संस्कार व्यवस्था, लोक शिक्षा योजना, शिक्षा संस्कार योजना पर बाबा नागराज जी नेकहा कि हर आदमी हर आयु में समझदार होने कि क्षमता रखता है. वर्त्तमान प्रणाली में पैसा बनाना ही समझदारी
मान लिया गया है. मानव चेतना को सही ना पहचाने के कारण यह गलती हुई हैं. इसके लिए उन्होंने मध्यस्थ दर्शनके आलोक में निकाले गए निष्कर्षों के बारे में बताया. इसमें मानव व्यवहार दर्शन, मानव कर्म दर्शन, अभ्यासदर्शन और अनुभव दर्शन कि व्याख्या की. साथ साथ उन्होंने कहा कि चारों अवस्थाओं में संतुलन से जीने कि समझही विचार हैं. यहाँ पर उन्होंने भोगोन्मादी समाजशास्त्र कि जगह पर व्यवहारवादी समाजशात्र, लाभोंमादी अर्थशास्त्रकी जगह पर आवर्तनशील अर्थशास्त्र और कमोंमादी मनोविज्ञान के स्थान पर संचेतनावादी मनोविज्ञान को शिक्षाकी वस्तु बनाये जाने की आवश्यकता को निरुपित किया. दूसरे दिन ही बिजनौर, कानपुर, जयपुर, हैदराबाद, बंगलोर, चैने, कोचीन, हरीद्वार आदि केन्द्रों के प्रतिनिधियों ने अपने क्षेत्रो में चल रही गतिविधियों से अवगतकराया. इसी दिन एक सत्र श्री साधन भट्टाचार्य जी के संयोजकत्व में परिवार मूलक स्वराज व्यवस्था पर श्री प्रवीणसिंह, अजय दायमा, डॉ. प्रदीप रामचराल्ला और दूसरा सत्र डॉ. नव ज्योति सिंह के संयोजकत्व शोध, अनुसन्धान, अवर्तानशील कृषि पर हुआ जिसमें बांदा के श्री प्रेम सिंह, आइआइआइटी के शोधार्थी हर्ष सत्या, म्रदु आदि ने अपनेविचार व्यक्त किये.

तीसरे दिन श्री नागराज जी ने कहा कि अस्तित्व में व्यापक वस्तु ही ऊर्जा हैं. पदार्थावस्था में भौतिक-रासायनिक
क्रियायें ऊर्जा सम्पनता के कारण से हैं. ज्ञान सम्पनता होना ही सहस्तित्व में जीना है. अभी तक आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण पर है अध्यन हुआ है. सहस्तित्व को पकडा नहीं है इसलिए मानव काअध्ययन नहीं हुआ. सहस्तित्व को समझने और उस में जीने से एकरूपता बनती है. जीवन एक गठन
पूर्ण परमाणु है, उसमे दस क्रियाएँ होती हैं. अभी तक मनुष्य साढ़े चार क्रियाओं पर जीता रहा है. इसी से व्यक्तिवादऔर समुदायवाद का जन्म हुआ. और इसी से संघर्ष और शोषण युद्ध होता है इसी कारण चयन विधि गलत हुई. संघर्ष करने वालों का ही चुनाव होता है और वह पैसा पैदा करता है. मानवीय समस्यओं का समाधान सहस्तित्वविधि से ही होगा. सहस्तित्व का ज्ञान होना ही लक्ष्य है. इसका ज्ञान जीवन का अध्ययन और मानवीय आचरण केअध्ययन और अस्तित्व के अध्ययन से ही पूरा होगा. इस अध्ययन से समझना जीने देना और जीने का सूत्र समझमें आता है. बाबा ने समझ के रूप में शरीर पोषण-संरक्षण के लिए आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण छह आकांक्षाओं को बताया है.

जीवन के सम्बन्ध में न्याय, धर्म, सत्य को समझना जरुरी है. प्रकृति के संबंधन में नियम, नियंत्रण, संतुलन के रूपमें जीना समझना जरुरी है. सार रूप में सार्वाभोम व्यवस्था के लिए प्रकृति कि चारों अवस्थाओं में सहस्तित्व, परस्पर पूरकता और संतुलन को समझना जरुरी है. इसी दिन एक सत्र में श्री रणसिंह, श्री अशोक सिरोही ने जनअभियान के सन्दर्भ में समाधान के लिए प्रयास पर अपने विचार व्यक्त किये. एक अन्य सत्र में आईआईआईटीनिदेशक डॉ. राजीव सांगल, श्री सोम देव त्यागी, म्रदु, सुनीता पाठक,श्री भानुप्रताप आदि ने लोक शिक्षा और शिक्षासंस्कार व्यवस्था पर चर्चा को आगे बढाया. श्री सोम देव त्यागी ने रायपुर में हो रहे प्रयोगों पर विस्तार से प्रकाशडाला.
चोथे दिन सार्वाभोम व्यवस्था पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि अध्ययन पूर्वक न्याय और व्यवस्था कोसमझा जा सकता है. और समझकर प्रमाणित किया जा सकता हैं. सार्वाभोम व्यवस्था कि समझ से ही मानव जीवचेतना से मानव चेतना में संक्रमित होकर व्यवस्था में भागीदारी का निर्वाह जिम्मेदारी पूर्वक कर सकता है. अभीतक मानव कार्य कलाप सुविधा संग्रह तक ही है. मानव न्यायं धर्म सत्य को प्रमाणित करने में असफल रहा है.
समझदारीपूर्वक मानव समाधा, समृधिपूर्वक जीकर सुखी व् भय मुक्त हो सकता है इसके लिए धरती पर मानव
मानसिकता से संपन्न प्रमाणित व्यतियों द्वारा शिक्षा संस्कार के द्वारा मानव मानसिता से संपन्न पीड़ी तैयार होसकती है. जो व्यवस्था पूर्वक जीकर मानवीयता सहस्तित्व को प्रमाणित करेगी. इस अंतिम दिन आज की दिशाएवं समाधान की दिशा सत्र में डॉ. प्रदीप रामचर्ल्ला, आभ्याशा स्कूल के संस्थापक श्री विनायक कल्लेतला, श्रीराजुल अस्थाना, श्री सोमदेव, प्रोफेसर राजीव सांगल ने अपने विचार व्यक्त किये.

१४वें रास्ट्रीय सम्मलेन का आयोजन आई आई आई टी के डॉ राजीव सांगल, डॉ. प्रदीप रामचर्ल्ला, श्री गणेशबागडिया, श्री रनसिंह आर्य, श्री साधन, श्री सोम देव, श्री श्रीराम नरसिम्हन, सुमन, विनायक और आई आई आई टीके छात्रो ने आभ्याशा स्कूल के प्रमुख श्री विनायक कल्लेतला और श्री प्रसाद राव के सहयोग से संपन्न किया.


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जीवन विद्या का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन

जीवन विद्या का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन हैदराबाद में सम्पन्न

अमरकंटक से आरंभ हुआ जीवनविद्या का कारवां दक्षिण भारत तक पहुंच गया है. अक्टूबर माह के पहले सप्ताह में इसका एक विहंगम नजारा हैदराबाद में देखने को मिला. जहां जीवन विद्या से जुड़े देशभर के २३ केन्द्रों से लगभग २५० लोग एकत्र हुए. दक्षिण भारत में जीवन विद्या का ये पहला और 14 वां राष्ट्रीय अधिवेशन था. हैदराबाद से सटे तुपरान कसबे के अभ्यासा स्कूल में आयोजित यह सम्मेलन कई मामलों में दूसरे सम्मेलनों से भिन्न रहा. आजकल के सम्मेलनों के उलट न तो इसके प्रचार-प्रसार के लिए बैनर- पोस्टर लगे थे और नहीं कहीं होर्डिंग्स.यहां तक की मीडिया वालों को भी आमंत्रण नहीं था. शायद यहीं इस अभियान की खासियत भी है .इसके शिल्पी प्रचार-प्रसिद्धी से दूर रहते हुए शिक्षा के जरिये जन मानस में समझदारी विकसित करने के काम में तन्मयता से जुटे हैं. सम्मेलन में वे लोग हीं अपेक्षित थे जो जीवनविद्या के प्रबोधन, लोकव्यापीकरण और प्रचार में लगे हैं. ऐसे हीं तकरीबन ढाई सौ लोग तुपरान में जुटे जिसमें दक्षिण भारत के लगभग सभी प्रमुख शहरों के प्रतिभागी भी थे. जीवन विद्या के प्रणेता बाबा ए नागराज पूरे चार दिनों तक यहां रहे और प्रतिभागियों का मार्गदर्शन किया.
पहले दिन उदघाटन सत्र में बाबा नागराज ने अनुसन्धान की आवश्यकता पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि पृथ्वी पर मानव ज्ञानी, विज्ञानी और अज्ञानी के रूप में है. मानव ने जाने- अनजाने पृथ्वी को ना रहने लायक बना दिया है. पृथ्वी को रहने योग्य बनाना ही इस अनुसन्धान का उद्देश है. धरती पर उष्मा बढने के कारण ही धरती बीमार होती जा रही है. इस पर शोध अनुसन्धान जरुरी है. इसके लिए मानव को न्याय पूर्वक जीना होगा और स्वयं में समझ कर जीना होगा, यही समस्याओं का समाधान है. उत्पादन कार्य में संतुलन और संवेदनाओं में नियंत्रण से ही अपराध में अंकुश लग सकता है. प्रयोजन के सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता हर मानव के पास हैं. इसके आधार पर हर मानव समझदार हो सकता है और व्यवस्था में जी सकता है. उन्होंने नर-नारी में समानता और गरीबी-अमीरी में संतुलन पर जोर दिया. इसी दिन दुसरे सत्र में मुंबई, भोपाल, इंदौर और पुणे के प्रतिनिधियो ने जीवन विद्या आधारित अभियान की समीक्षा और भावी दिशा पर विचार व्यक्त किये. मुंबई से आये डॉ. सुरेन्द्र पाठक ने मुंबई में जीवन विद्या की गतिविधियों पर विस्तार से प्रकाश डाला. उन्होंने बताया कि मुम्बई के सोमैया विद्या विहार के विभिन्न कालेजों में शिक्षको छात्रों के बीच शिविर आयोजित हो रहे हैं. ऐसे ६०० शिक्षकों के २४ छः दिवसीय शिविर विगत दो वर्षों में संपन्न हुए हैं तथा मुंबई विश्वविद्यालय के एक पाठ्यक्रम में जीवन विद्या की एक यूनिट शामिल की गई है. मुंबई के आसपास के शहरों में भी परिचय शिविर आयोजित किये जा रहे है. भोपाल से आई श्रीमती आतिषी ने मानवस्थली केंद्र की गतिविधियों से प्रतिनिधियों को अवगत कराया. इंदौर के श्री अजय दाहिमा और पुणे के श्रीराम नर्सिम्हम ने अपने इलाके में चल रही गतिविधियों की जानकारी दी. यह भी बताया गया कि उत्तरप्रदेश तकनीकी विश्वविद्यालय ने अपने सभी ५१२ कालेजो में 'वेल्यु एजूकेशन एंड प्रोफेशनल एथिक्स' जीवन विद्या आधारित फाउनडेशन कोर्से लागु किया है जिसकी टेक्स्ट बुक भी छप गई है. और विद्यार्थियों के लिए वेबसाईट बनाकर भी पाठ्य सामग्री उपलब्ध करा दी गई है. अगले सत्र में रायपुर, ग्वालियर, बस्तर, दिल्ली, बांदा, चित्रकूट आदि केंद्र ने अपनी प्रगति से अवगत कराया. रायपुर से आये श्री अंजनी भाई ने बताया की अभ्युदय संस्थान में छत्तीसगड़ राज्य के १०० शिक्षको का छः महीने का अध्ययन शिविर चल रहा है ये शिक्षक २० दिन प्रशिक्षण लेते है और १० दिन अपने-अपने क्षेत्रों में शिविर लेते हैं. राज्य में दस हजार से भी ज्यादा शिक्षको के शिविर हो चुके है. गत २९ सितम्बर को राज्य के मुख्यमंत्री श्री रमन सिंह ने अभ्भुदय संस्थान का अवलोकन किया और पूज्य बाबा नागराज जी से अभियान पर चर्चा की. वहां उन्होंने प्रशिक्षण ले रहे शिक्षको को संबोधित किया तथा प्रशिक्षण के दौरान हुए उनके अनुभवों को भी सुना. मुख्यमंत्री रमन सिंह ने घोषणा कर दी कि राज्य के आईएएस, आईपीएस और आईएफएस आधिकारियो को भी एक हफ्ते के प्रशिक्षण के लिए अभ्भुदय संस्थान भेजा जायेगा.

दूसरे दिन मानवीय शिक्षा संस्कार व्यवस्था, लोक शिक्षा योजना, शिक्षा संस्कार योजना पर बाबा नागराज जी विचार रखे .उन्होंने कहा कि हर आदमी हर आयु में समझदार होने की क्षमता रखता है. वर्त्तमान प्रणाली में पैसा बनाना ही समझदारी मान लिया गया है. मानव चेतना को सही तरीके से ना पहचाने के कारण यह गलती हुई हैं. इसके लिए उन्होंने मध्यस्थ दर्शन के आलोक में निकाले गए निष्कर्षों के बारे में बताया. इसमें मानव व्यवहार दर्शन, मानव कर्म दर्शन, अभ्यास दर्शन और अनुभव दर्शन की व्याख्या की. साथ साथ उन्होंने कहा कि चारों अवस्थाओं में संतुलन से जीने की समझ ही विचार है . यहाँ पर उन्होंने भोगोन्मादी समाजशास्त्र की जगह व्यवहारवादी समाजशात्र, लाभोंमादी अर्थशास्त्र की जगह पर आवर्तनशील अर्थशास्त्र और कमोंमादी मनोविज्ञान के स्थान पर संचेतनावादी मनोविज्ञान को, शिक्षा की वस्तु बनाये जाने की आवश्यकता को निरुपित किया. दूसरे दिन ही बिजनौर, कानपुर, जयपुर, हैदराबाद, बंगलोर, चेन्नै, कोचीन, हरिद्वार आदि केन्द्रों के प्रतिनिधियों ने अपने क्षेत्रो में चल रही गतिविधियों से वृत प्रस्तुत किया. इसी दिन एक सत्र श्री साधन भट्टाचार्य जी के संयोजकत्व में परिवार

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मूलक स्वराज व्यवस्था पर हुआ जिसमें प्रवीण सिंह, अजय दायमा, डॉ. प्रदीप रामचराल्ला ने विचार रखे . दूसरा सत्र डॉ. नव ज्योति सिंह के संयोजकत्व में शोध, अनुसन्धान, अवर्तानशील कृषि पर हुआ जिसमें बांदा के श्री प्रेम सिंह, आइआइआइटी के शोधार्थी हर्ष सत्या, मृदु आदि ने अपने विचार व्यक्त किये.

तीसरे दिन बाबा नागराज जी ने कहा कि अस्तित्व में व्यापक वस्तु ही ऊर्जा हैं. पदार्थावस्था में भौतिक-रासायनिक
क्रियायें ऊर्जा सम्पनता के कारण से हैं. ज्ञान सम्पनता होना ही सहस्तित्व में जीना है. अभी तक आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण पर हीं अध्ययन हुआ है. सहस्तित्व को पकडा नहीं है, इसलिए मानव का अध्ययन नहीं हुआ. सहस्तित्व को समझने और उस में जीने से एकरूपता बनती है. बाबा कहते गये,जीवन एक गठन
पूर्ण परमाणु है, उसमे दस क्रियाएँ होती हैं. अभी तक मनुष्य साढ़े चार क्रियाओं पर हीं जीता रहा है. इसी से व्यक्तिवाद और समुदायवाद का जन्म हुआ. और इसी से संघर्ष और शोषण युद्ध होता है. उन्होंने कहा कि मानवीय समस्यओं का समाधान सहस्तित्व विधि से ही होगा. सहस्तित्व का ज्ञान होना ही लक्ष्य है. इसका ज्ञान हमें जीवन का अध्ययन , मानवीय आचरण का अध्ययन और अस्तित्व के अध्ययन से ही पूरा होगा. बाबा ने समझ के रूप में शरीर पोषण-संरक्षण के लिए आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण छह आकांक्षाओं को बताया है.

जीवन के सम्बन्ध में न्याय, धर्म, सत्य को समझना जरुरी है. प्रकृति के संबंध में नियम, नियंत्रण, संतुलन के रूप में जीना समझना जरुरी है. सार रूप में सार्वाभोम व्यवस्था के लिए प्रकृति की चारों अवस्थाओं में सहस्तित्व, परस्पर पूरकता और संतुलन को समझना जरुरी है. इसी दिन के एक सत्र में श्री रणसिंह आर्य ने जन अभियान के सन्दर्भ में समाधान के लिए प्रयास पर अपने विचार व्यक्त किये. एक अन्य सत्र में आईआईआईटी ,हैदराबाद के निदेशक डॉ. राजीव सांगल, श्री सोम देव त्यागी, मृदु , सुनीता पाठक, भानुप्रताप आदि ने लोक शिक्षा और शिक्षा संस्कार व्यवस्था पर चर्चा को आगे बढाया. श्री सोम देव त्यागी ने रायपुर में हो रहे प्रयोगों पर विस्तार से प्रकाश डाला.
चौथे दिन सार्वभोम व्यवस्था पर अपने विचार व्यक्त करते बाबा नागराज ने कहा कि अध्ययन पूर्वक न्याय और व्यवस्था को समझा जा सकता है. और समझकर प्रमाणित किया जा सकता हैं. सार्वभोम व्यवस्था की समझ से ही मानव, जीव चेतना से मानव चेतना में संक्रमित होकर व्यवस्था में भागीदारी का निर्वाह जिम्मेदारी पूर्वक कर सकता है. अभी तक मानव कार्य कलाप सुविधा-संग्रह तक ही है. मानव न्याय सत्य को प्रमाणित करने में असफल रहा है. समझदारीपूर्वक जीते हु्ए मानव सुखी व भय मुक्त हो सकता है ,इसके लिए धरती पर मानव मानसिकता से संपन्न व प्रमाणित व्यतियों द्वारा शिक्षा संस्कार के द्वारा मानव मानसिता से संपन्न पीड़ी तैयार हो सकती है. जो व्यवस्था पूर्वक जीकर मानवीयता व सहस्तित्व को प्रमाणित करेगी. चौथे और अंतिम दिन आज की दशा एवं समाधान की दिशा सत्र में डॉ. प्रदीप रामचर्ल्ला, अभ्यासा स्कूल के संस्थापक विनायक कल्लेतला, राजुल अस्थाना, श्री सोमदेव, प्रोफेसर राजीव सांगल ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये. सम्मेलन के दूसरे कई सत्रों को आई आई आई टी,हैदराबाद निदेशक डॉ राजीव सांगल, डॉ. प्रदीप रामचर्ल्ला, प्रोफेसर गणेश बागडिया, रणसिंह आर्य, श्री साधन भट्टाचार्य , श्री सोम देव, श्रीराम नरसिम्हन, सुमन, विनायक आदि ने संबोधित किया..

सम्मेलन में प्रतिनिधियो के ठहरने और खाने की व्यवस्था स्कूल प्रबंधन ने की थी. इसकी दिनचर्या भी सधी हुई थी. सुबह योग -प्राणायाम का छोटा सत्र चलता फिर नास्ते के बाद प्रतिभागी जीवनविद्या अभियान की समीक्षा और भावी योजनाओं पर चर्चा में जुट जाते. यहां तक की बाबा नागराज भी संबोधन के बाद प्रश्नोत्तरी के लिए समय देते. आपसी संवाद और समन्वय का अनोखा नजारा चार दिनों तक दिखा. अगले साल उत्तरप्रदेश के बांदा में फिर मिलने की घोषणा के साथ राष्ट्रीय सम्मेलन का समापन हो गया.

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